: जेठ : २४७५ : आत्मधर्म : १४५ :
सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ पण श्रेष्ठ छे
जे सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ छे ते मोक्षमार्गमां रहेलो छे, परंतु
मिथ्याद्रष्टि मुनि मोक्षमार्गी नथी; माटे मिथ्याद्रष्टि मुनि करतां
सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ छे. –रत्नकरंड श्रावकाचार: ३३
गंभीर स्वभाव छे. एवा स्वभावनी सम्यक्प्रतीतिरूपे परिणमन थई जवुं ते सम्यग्दर्शन छे;
[६४] जैनधर्मना प्रथम आचार–विचार
आवुं सम्यग्दर्शन आचार्य–उपाध्याय–साधुने होय छे. आ सम्यग्दर्शन ते ज पहेलो धर्मनो आचार छे.
दर्शनाचार पहेलांं व्रताचार होई शके नहि. जे गृहस्थ सम्यग्द्रष्टि होय तेने पण आवो दर्शनाचार होय छे. धर्मी
जीवना आचार–विचार केवा होय अथवा तो जैनना आचार–विचार शुं? रागादि के अधूरुं ज्ञान ते हुं नहि पण
पूर्ण शुद्धात्मतत्त्व ते हुं एवुं जे ज्ञान ते विचार छे अने तेनी प्रतीतिरूप परिणमन ते आचार छे. आ ज धर्मी
जीवना (जैनना) आचार–विचार छे. पण बहारमां अमुक खपे ने अमुक न खपे ए कांई धर्मनो आचार नथी,
केमके धर्मी जीवो परद्रव्य साथे संबंध ज मानता नथी.
[६५] रुचिरूपी इंडुं अने केवळज्ञानरूपी मोरलो
जेम मोरना इंडामांथी सुंदर मोर पाके छे, परंतु इंडामां पहेलांं तो रस होय छे, तेनी श्रद्धा करीने सेवन
करवाथी मोर पाके छे. तेम चैतन्यद्रव्य स्वभावनो जेने रस थाय (रुचि थाय) तेने केवळज्ञानरूपी मोर
पाकवानी शंका न पडे. पण पहेलेथी ज शंका करीने इंडाने खखडावे तो मोर थाय नहि. तेम चैतन्यस्वभावनी
श्रद्धा पण करे नहि तो ते चैतन्यनुं सेवन करे नहि अने तेने केवळज्ञानरूपी मोर पाके नहि. जेम मोर प्रगट्या
पहेलांं इंडामां मोरनी श्रद्धा करे छे तेम केवळज्ञानदशा प्रगट्या पहेलांं आत्माना पूर्ण स्वभावनी प्रतीति करीने
तेनुं सेवन करे तो केवळज्ञान परमात्मदशा प्रगटे. माटे ज्ञानीओ कहे छे के भाई, मान रे मान! तारो स्वभाव
परिपूर्ण चिदानन्द चिद्रूप छे, अने रागादिनो संबंध तारा स्वभावमां नथी;–ए ज सम्यग्दर्शन छे.
सुख क्यां छे? अने केम थाय?
जेने आत्मानुं साचुं सुख जोईतुं होय तेणे शुं करवुं? –कई क्रिया करवाथी साचुं सुख थाय? ते वात चाले
छे. सुख क्यां छे? आत्मा सिवाय कोई बीजा पदार्थोमां आत्मानुं सुख नथी. शरीर वगेरे बधा पर पदार्थो आ
आत्माथी खाली छे; अने आत्मा ते पदार्थोथी खाली छे; तो ज्यां आ आत्मानुं होवापणुं नथी त्यांथी आत्मानुं
सुख आवे नहि. ज्यां सुख होय तेमांथी सुख प्रगटे, न होय तेमांथी प्रगटे नहि. आत्मा पोताना ज्ञान अने
सुख स्वभावथी भरेलो छे, पुण्य–पाप के पर वस्तुओथी ते शून्य छे, एटले के तेमां ज्ञान के सुख नथी.
आत्मा परथी खाली छे–एम कहेतां कांई आत्मानो सर्वथा अभाव थतो नथी, केमके ते पोताना
स्वभावथी परिपूर्ण भरेलो छे. कोई वस्तु पोते पोताना स्वभावथी खाली न होय अने एक वस्तुमां बीजानो
प्रवेश कदी होय नहि. दरेक वस्तु पोताना स्वभावथी पूरी छे. आत्मा पोते जाणवुं–देखवुं–श्रद्धा–सुख–चारित्र–
वीर्य वगेरे अनंत शक्तिओथी भरेलो छे, एवा आत्मस्वभावनी श्रद्धा अने स्थिरता करतां आत्मा पोते ज
सुखरूपे परिणमे छे, आत्मामांथी ज सुखनो प्रवाह वहे छे. ‘आत्मामां ज परिपूर्ण सुख छे, परमां क्यांय सुख
नथी तेम ज पर पदार्थो सुखनां साधन पण नथी’ –एम नक्की करे तो पर पदार्थोमांथी सुखबुद्धि टळे अने
जेमांथी सुख झरे छे एवा आत्मद्रव्यनुं लक्ष थाय, ने तेना आश्रये सुखनो अनुभव थाय. पण शरीर–पैसा–स्त्री
वगेरे पर पदार्थोमां ज सुख भासतुं होय ते जीव त्यांथी खसीने आत्मस्वभाव तरफ वळवानो प्रयत्न करे नहि,
ने तेने साचुं सुख थाय नहि. “भेदविज्ञानसार”
सम्यक्त्वना प्रतापथी पवित्रता
श्री गणधरदेवोए सम्यग्दर्शन–संपन्न चंडाळने पण देव समान कह्यो छे. भस्ममां छूपायेल
अग्निनी चिनगारीनी जेम ते आत्मा चांडाळ देहमां रहेलो होवा छतां सम्यग्दर्शनना प्रतापथी ते
पवित्र थई गयो छे तेथी ते देव छे. –रत्नकरंडश्रावकाचार: २८