परसाथेना संबंधने) स्वीकारतुं नथी पण आखा स्वभावने स्वीकारे छे. आखो स्वभाव शुं? ने नानो भाग
शुं? द्रव्यकर्म–नोकर्मने स्वीकारे नहि, क्षणिक रागादिने स्वीकारे नहि, पण अधूरी निर्मळपर्यायने पण स्वीकारे
नहि. अने नर, नारकादिरूप आत्माना विभावव्यंजन–पर्यायने पण स्वीकारतुं नथी. त्रिकाळीस्वभावनी
एवो पण विकल्प के भेद नथी, तेमां तो ‘एकलो परमसत्यस्वभाव ते ज हुं’ एवी प्रतीतिरूप अनुभव होय छे.
परमसत्यस्वभाव ते ज मोटो (पूरो) भाग छे.
सम्यग्दर्शन स्वीकारे छे.
११ मी गाथामां तेने ‘भूतार्थ’ कह्यो छे. शुद्धात्मतत्त्व ते ज भूतार्थ छे अने उपर कह्या ते बधा भावो अभूतार्थ
छे; अभूतार्थ एटले के क्षणिक छे, तेने ज्ञान जाणे पण सम्यग्दर्शन तेने स्वीकारे नहि.
कहेतां नथी पण ‘जेवो तारो स्वभाव छे तेवो तुं मान अने अमारो आश्रय छोड तो सम्यग्दर्शन छे’ एम
वीतरागशासनमां कह्युं छे. कुदेवादिने मानवानी वात तो धर्मथी क्यांय दूर रही पण साचा देव–गुरु–शास्त्रनी
प्रतीतथी पण राग छे, धर्म नथी.
होवाथी अहीं तेने द्रव्यमां अभेदपणे गणी छे. केवळज्ञान पर्यायने जुदो लक्षमां लेनार शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय
छे. शुद्धनयना विषयरूप शुद्धात्मद्रव्यमां केवळज्ञानपर्याय अभेदपणे आवी जाय छे, पण भेद पाडीने ते एक
पर्यायने जुदो लक्षमां लेतां राग आवे छे माटे ते भेदनो निषेध छे.
ज आराधवा योग्य छे, ए सिवाय अन्य कोई वस्तु आराधवा योग्य नथी. आवी द्रढ प्रतीति करवी ते ज
सम्यक्त्व छे. आवुं जे आत्माए कर्युं ते आत्मा सम्यक् थयो अर्थात् ते ज आत्मा साचो थयो.
स्वीकारतुं नथी. त्रिकाळीस्वभाव ते परमसत्य छे, सर्व प्रसंगमां तेनी द्रढता आगळ करवी; लखवामां,
वांचवामां श्रवणमां, बोलवामां के चिंतवनमां सर्वत्र ए ज एक परम उपादेय शुद्धात्मतत्त्वनी मुख्यता राखवी.
ज्ञान पर्याय वध्यो तेटलो पण हुं नहि पण ज्यांथी ज्ञान प्रगटे छे एवो पूरो स्वभाव ते हुं छुं–एम
त्रिकाळीस्वभावनी गंभीरता पर द्रष्टि करवी. पर्यायमां आटलुं ज्ञान नीकळ्युं तो हजी स्वभावमां केटली
गंभीरता हशे! एम जे पर्याय प्रगटी तेना लक्षे न अटकतां स्वभावनी द्रष्टि करवी. अनंतअनंत केवळज्ञान
अवस्था प्रगटे एवो