Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १४४ : आत्मधर्म : जेठ : २४७५ :
मोटा भागने ज स्वीकारे छे. तेम अहीं सम्यग्दर्शन कोई नाना भागने (भेदने, अपूर्णताने, विकारने के
परसाथेना संबंधने) स्वीकारतुं नथी पण आखा स्वभावने स्वीकारे छे. आखो स्वभाव शुं? ने नानो भाग
शुं? द्रव्यकर्म–नोकर्मने स्वीकारे नहि, क्षणिक रागादिने स्वीकारे नहि, पण अधूरी निर्मळपर्यायने पण स्वीकारे
नहि. अने नर, नारकादिरूप आत्माना विभावव्यंजन–पर्यायने पण स्वीकारतुं नथी. त्रिकाळीस्वभावनी
अपेक्षाए ते बधा नाना भाग छे. आ निषेध कर्यो तेने ज्ञान जाणे छे, सम्यग्दर्शनमां तो ‘आ रागादि हुं नहि’
एवो पण विकल्प के भेद नथी, तेमां तो ‘एकलो परमसत्यस्वभाव ते ज हुं’ एवी प्रतीतिरूप अनुभव होय छे.
परमसत्यस्वभाव ते ज मोटो (पूरो) भाग छे.
ए रीते द्रव्यकर्म, नोकर्म, रागादि, मतिज्ञानादि विभावगुण अने विभावव्यंजन पर्याय–ए बधा असत्
छे, तेना संबंध रहित चिदानंद चिद्रूप एक अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व छे ते ज परमसत्य छे, तेने ज
सम्यग्दर्शन स्वीकारे छे.
अनेक प्रकारनो निषेध करीने शुद्धात्मतत्त्वने ‘एक’ कह्युं, अने विकारादिनो निषेध करीने ‘चिदानंद
चिद्रूप शुद्धात्मस्वभाव’ एम कह्युं छे, आ सत्यस्वभाव ते ज भूतार्थ छे. अहीं संस्कृत टीकामां तथा समयसारनी
११ मी गाथामां तेने ‘भूतार्थ’ कह्यो छे. शुद्धात्मतत्त्व ते ज भूतार्थ छे अने उपर कह्या ते बधा भावो अभूतार्थ
छे; अभूतार्थ एटले के क्षणिक छे, तेने ज्ञान जाणे पण सम्यग्दर्शन तेने स्वीकारे नहि.
[६१] परनी प्रतीतथी सम्यग्दर्शन नथी.
वीतरागमार्गमां परने मानवाथी सम्यग्दर्शन कह्युं नथी परंतु पोते पोतानो जेवो स्वभाव छे तेवो
मानवाथी सम्यग्दर्शन कह्युं छे. ‘तुं अमने मान तो तने सम्यग्दर्शन छे’ एम वीतरागशासनमां देव–गुरु–शास्त्र
कहेतां नथी पण ‘जेवो तारो स्वभाव छे तेवो तुं मान अने अमारो आश्रय छोड तो सम्यग्दर्शन छे’ एम
वीतरागशासनमां कह्युं छे. कुदेवादिने मानवानी वात तो धर्मथी क्यांय दूर रही पण साचा देव–गुरु–शास्त्रनी
प्रतीतथी पण राग छे, धर्म नथी.
[६२] केवळज्ञानपर्यायनो निषेध छे के नहि?
उपर मतिज्ञानादिने विभावगुण तरीके कहीने निषेध कह्यो छे, परंतु तेमां केवळज्ञानने विभावगुण गण्युं
नथी, केमके ते पूर्ण शुद्धदशा होवाथी अभेदपणे शुद्धात्मतत्त्वमां आवी जाय छे, अने वर्तमान ते पर्याय
आत्मामां प्रगट नथी; तेनो भेद पाडीने जे विकल्प करवो ते विकल्पनो निषेध छे, पण केवळज्ञान शुद्धअवस्था
होवाथी अहीं तेने द्रव्यमां अभेदपणे गणी छे. केवळज्ञान पर्यायने जुदो लक्षमां लेनार शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय
छे. शुद्धनयना विषयरूप शुद्धात्मद्रव्यमां केवळज्ञानपर्याय अभेदपणे आवी जाय छे, पण भेद पाडीने ते एक
पर्यायने जुदो लक्षमां लेतां राग आवे छे माटे ते भेदनो निषेध छे.
[६३] सम्यग्दर्शन प्रगटवा माटे आत्माए शुं करवा योग्य छे?
जे परमार्थरूप समयसार छे तेने ज सम्यग्दर्शन स्वीकारे छे, तेनुं ज आराधन तेनी सेवना, तेनी रुचि,
तेमां एकाग्रता, ते रूप परिणमन अने एमां ज लीनता करवा योग्य छे. सर्व प्रकारे ए परमार्थ शुद्धात्मस्वभाव
ज आराधवा योग्य छे, ए सिवाय अन्य कोई वस्तु आराधवा योग्य नथी. आवी द्रढ प्रतीति करवी ते ज
सम्यक्त्व छे. आवुं जे आत्माए कर्युं ते आत्मा सम्यक् थयो अर्थात् ते ज आत्मा साचो थयो.
त्रिकाळस्वभावने भूलीने संयोगद्रष्टि के पर्यायद्रष्टि ते मिथ्यात्व छे. परंतु त्रिकाळीस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक
पर्यायनुं के संयोगनुं ज्ञान करे तो त्यां मिथ्याज्ञान नथी केमके ते ज्ञान तेनो निषेध करे छे, स्वभावमां तेने
स्वीकारतुं नथी. त्रिकाळीस्वभाव ते परमसत्य छे, सर्व प्रसंगमां तेनी द्रढता आगळ करवी; लखवामां,
वांचवामां श्रवणमां, बोलवामां के चिंतवनमां सर्वत्र ए ज एक परम उपादेय शुद्धात्मतत्त्वनी मुख्यता राखवी.
बीजुं जे जे आवे तेने जाणीने ‘आ हुं नहि’ एम निषेध करीने अखंड स्वभावनी ज द्रष्टिनो पुरुषार्थ करवो.
ज्ञान पर्याय वध्यो तेटलो पण हुं नहि पण ज्यांथी ज्ञान प्रगटे छे एवो पूरो स्वभाव ते हुं छुं–एम
त्रिकाळीस्वभावनी गंभीरता पर द्रष्टि करवी. पर्यायमां आटलुं ज्ञान नीकळ्‌युं तो हजी स्वभावमां केटली
गंभीरता हशे! एम जे पर्याय प्रगटी तेना लक्षे न अटकतां स्वभावनी द्रष्टि करवी. अनंतअनंत केवळज्ञान
अवस्था प्रगटे एवो