Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४७५ : आत्मधर्म : १४३ :
लेखांक ८] वीर संवत् २४७३ भादरवा सुद १ सोमवार [अंक ६७थी चालु
[श्री परमात्म प्रकाश गा. ७]
पहेलां परमात्मस्वरूपनी ओळखाणपूर्वक परमात्माने नमस्कार कर्या. हवे आचार्य, उपाध्याय अने
साधुने नमस्कार करे छे, तेमां तेमना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र वगेरे पंचाचार केवा होय ते
ओळखीने नमस्कार करे छे. पहेलो सम्यग्दर्शनाचार छे. जेवुं सम्यग्दर्शन मुनिने होय तेवुं ज श्रावक गृहस्थनुं
सम्यग्दर्शन पण होय छे.
[६०] सम्यग्द्रष्टि जीव शुं स्वीकारे छे अने शेनो निषेध करे छे?
मुनिओना पंचाचारमां पहेलांं ‘दर्शनाचार’ छे; ते ओळखाववा माटे, सम्यग्द्रष्टि जीव आत्माने केवो
श्रद्धे छे ते बतावे छे. आत्मानो सत्स्वभाव बताववा माटे पहेलांं असत्नो निषेध करे छे.
(१) परद्रव्य साथेना सबंधनो (असद्भूत व्यवहारनो) निषेध :– द्रव्यकर्म अने शरीरादि नोकर्म ते जड छे,
आत्मा साथे ते एक क्षेत्रे रहेला छे तेथी ते ‘अनुपचरित’ छे. परंतु ते असद्भूत छे–मिथ्या छे. शरीरादि नोकर्म
तथा आठ द्रव्यकर्मनो संबंध असत् छे, मिथ्या छे, माटे सम्यग्दर्शन प्रगट करनार जीव तेना उपरनी द्रष्टि छोडे
छे. असत् संबंधनो निषेध करीने सत्स्वभावनो ज संबंध बतावे छे.
धर्मी एम माने छे के–अत्यार सुधी पर साथे में संबंध मान्यो हतो ते मान्यता मिथ्या हती, हवे ते
मान्यता छोडु छुं. सम्यग्दर्शनमां पहेली आ ज वात छे. अज्ञानीओ पहेलांं लीलोतरी छोडवी–एवी वातो करे छे.
धर्मी जीवो पोताने आत्मा माने छे, अने मनुष्यपणाना व्यवहारनी जेटली क्रिया छे तेने पोतानुं स्वरूप मानता
नथी. मनुष्यपणाना व्यवहारनी क्रियाने जे आत्मानी माने ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे एम प्रवचनसार शास्त्र (अ,
२ गा. ३) मां कह्युं छे.
धर्म करनारे एकला रहेवुं छे के बेकला (परसाथे संबंधमां) रहेवुं छे? धर्म एकला स्वभावमां छे, एटले
एकरूप स्वभाव साथे संबंध जोडवो, ने जुदा पदार्थो साथेनो संबंध तोडवो–ए धर्मीनुं काम छे. पहेलांं तो शरीर
अने कर्मो साथेनो संबंध तोडयो.
(२) रागादिविकार अने विभावपर्यायनो (अशुद्धनिश्चयनो) निषेध :– हवे राग–द्वेषादि विकारीभावो
साथेनो संबंध तोडे छे: अशुद्धनिश्चयनयथी पोताना पर्यायमां विकार छे तेने जाणीने, ‘तेनाथी रहित शुद्धचिद्रूप
छुं’ एम ज्ञानी जाणे छे अने ते विकारनो संबंध असत् छे तेथी तेनी प्रतीति छोडे छे. शरीरादि तो जुदा ज छे
अने विकार क्षणिक छे. ए बंनेनो संबंध असत् छे. एक शुद्धचिद्रूपस्वभाव छुं ते ज सत् छे–एम धर्मी माने छे.
परम शुद्धात्मतत्त्वनो स्वीकार ते सम्यग्दर्शन छे; शरीरादि नोकर्म, द्रव्यकर्म अने रागादिभावकर्म ए
त्रणेना संबंधनो तो निषेध कर्यो. हवे अधूरीदशानो पण निषेध करे छे. मति–ज्ञानादि निर्मळदशाने अहीं
‘विभावगुण’ कह्यो छे; एना संबंधथी पण रहित छे केमके एटलुं आत्मानुं स्वरूप नथी. रागादि विकार थाय ते
तो आत्मानुं स्वरूप नथी. परंतु तेने जाणनारुं जे साचुं मति–श्रुत–अवधि के मनःपर्यायज्ञान ते पण आत्मानुं
स्वरूप नथी; सम्यग्दर्शन एनो संबंध स्वीकारतुं नथी. सम्यग्दर्शन ‘परम सत्य’ ने स्वीकारे छे; परमसत्य केवुं
छे ते बताववा माटे अहीं शास्त्रकार पहेलांं असत्ना संबंधनो निषेध करे छे.
मतिज्ञान–श्रुतज्ञान–अवधिज्ञान के मनःपर्ययज्ञान ते पण हजी अधूरीदशा छे ए अपेक्षाए विभाव छे;
तेने जाणवुं ते क्यो नय छे? अशुद्धनिश्चयनय तेने जाणे छे. ते मतिज्ञानादि–पर्यायो छे खरी, अने
अशुद्धनिश्चयनय तेने जाणे छे. पण सम्यग्दर्शन तेने स्वीकारतुं नथी, सम्यग्दर्शन तो पूरेपूरा स्वभावने ज
स्वीकारे छे, ते सिवाय कोईना संबंधने ते स्वीकारतुं नथी.
(३) परमसत्य स्वभावनो (शुद्धनिश्चयनो) स्वीकार :– बाळक पण नाना भागने स्वीकारतो नथी, पण