ज्ञाननो ज महिमा छे. ज्ञानस्वभावनी अनंततानो महिमा जाणीने तेमां जे ज्ञान वळ्युं ते ज्ञान आत्माना
कल्याणनुं कारण छे. छ द्रव्योना स्वभावनुं यथार्थ वर्णन संपूर्ण सर्वज्ञदेवना मार्ग सिवाय बीजे क्यांय नथी;
अनुयायी–सम्यग्द्रष्टि सिवाय बीजुं कोई नथी.
पदार्थोनुं गमे तेटलुं जाणपणुं करे ते आत्माने जाणवामां कार्यकारी थाय नहि. पोताना स्वभावना स्वीकार
विनानुं जेटलुं परनुं ज्ञान होय ते बधुं अचेतन छे. चेतन तो तेने कहेवाय के जे त्रिकाळी ज्ञानस्वभावने
स्वीकारने तेमां अभेद थाय. चैतन्यथी भेद पाडीने परमां अभेदपणुं माने तो ते ज्ञान चेतनानुं विरोधी छे.
ज्ञानमांथी परनो अने पर्यायनो पण आश्रय छोडीने त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय करवानुं जणाव्युं छे.
आकाश वगेरे द्रव्योना विचारमां ज अटकी रह्यो छे पण पोताना स्वभाव तरफ वळतो नथी एवा पात्र जीवने
माटे अहीं उपदेश छे के–हे जीव? पर द्रव्यो तरफ वळीने रागसहित जे ज्ञान जाणे ते तारुं स्वरूप नथी, पण
चैतन्यस्वभावमां वळीने ज्ञाननी जे अवस्था चैतन्यस्वभावमां अभेद थईने स्व–परने जाणे ते तारुं स्वरूप छे.
चैतन्यस्वभावमां वळीने तेमां लीन थयेलो पर्याय ते ज चैतन्यनुं सर्वस्व छे.
केम मानशे? –ए जीव तो पोताना ज्ञानपर्यायनो आश्रय पण छोडीने पोताना परिपूर्ण स्वभाव तरफ वळीने
तेमां लीन थशे. अहो, आवा भगवान चैतन्य स्वभावना स्वीकारमां केटलो पुरुषार्थ छे! पोताना मति–
श्रुतज्ञानने स्वभावमां एक करीने स्वभावना आश्रये हुं ज्ञाताद्रष्टा छुं एम जेणे स्वीकार्युं तेनी ज्ञानचेतना
जागृत थई ते आत्मा पोते जागृत थयो, साधक थयो अने हवे अल्पकाळमां केवळज्ञान लेवानो छे.
जेने भासे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. सम्यग्दर्शनना प्रभावे पर्याये पर्याये स्वभावमां एकता
ज वधती जाय छे. माटे आचार्य भगवान कहे छे के हे भाई! एकवार तुं एम तो मान
के ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं, रागादि मारामां छे ज नहि. पर्यायमां रागादि थाय ते मारा
ज्ञाननी भिन्नताने जाणीने एकवार तो रागथी जुदो पडीने आत्माना ज्ञाननो अनुभव
कर! तारा ज्ञानसमुद्रमां एकवार तो डूबकी मार.