Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १४२ : आत्मधर्म : जेठ : २४७५ :
द्रव्योनी संख्यामां पुद्गल द्रव्यो सौथी अनंता छे. क्षेत्रथी आकाश द्रव्य बधा करतां अनंतगुणुं छे, अने
भावथी भगवान आत्माना ज्ञाननी अनंतता छे. बधा पदार्थोनी अनंतताने जाणनारुं आत्मानु ज्ञान ज छे, ते
ज्ञाननो ज महिमा छे. ज्ञानस्वभावनी अनंततानो महिमा जाणीने तेमां जे ज्ञान वळ्‌युं ते ज्ञान आत्माना
कल्याणनुं कारण छे. छ द्रव्योना स्वभावनुं यथार्थ वर्णन संपूर्ण सर्वज्ञदेवना मार्ग सिवाय बीजे क्यांय नथी;
अने ते छ द्रव्योनो तथा तेने जाणनार पोताना ज्ञान स्वभावनो यथार्थ स्वीकार करनार सर्वज्ञदेवना
अनुयायी–सम्यग्द्रष्टि सिवाय बीजुं कोई नथी.
आकाशनी अनंतता वगेरे छ ए द्रव्योने रागसहित ख्यालमां ल्ये तेटलो उघाड तो अज्ञानमां पण होय
छे. बधा द्रव्योमां आकाश अनंतगुणा प्रदेशवाळुं छे एवुं तो मिथ्याश्रुतज्ञान पण ख्यालमां ले छे. परंतु पर
पदार्थोनुं गमे तेटलुं जाणपणुं करे ते आत्माने जाणवामां कार्यकारी थाय नहि. पोताना स्वभावना स्वीकार
विनानुं जेटलुं परनुं ज्ञान होय ते बधुं अचेतन छे. चेतन तो तेने कहेवाय के जे त्रिकाळी ज्ञानस्वभावने
स्वीकारने तेमां अभेद थाय. चैतन्यथी भेद पाडीने परमां अभेदपणुं माने तो ते ज्ञान चेतनानुं विरोधी छे.
आकाश ते जड द्रव्य छे ने तेनामां ज्ञान नथी एवुं तो सामान्यपणे घणा जीवो माने; पण अहीं मात्र
आकाशनुं ज अचेतनपणुं साबित नथी करवुं पण आचार्यदेवे अहीं गूढ भावो भर्या छे; एकला आकाश तरफनुं
ज्ञान पण अचेतन छे–एम कहीने त्रिकाळी आत्म स्वभाव साथे ज्ञाननी एकता जणावे छे; एटले वर्तमान
ज्ञानमांथी परनो अने पर्यायनो पण आश्रय छोडीने त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय करवानुं जणाव्युं छे.
जे जीवे कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र–कुतीर्थनी मान्यता छोडी दीधी छे अने जैनना नामे पण जे कल्पित
मिथ्यामार्ग चाले छे तेनी श्रद्धा छोडीने साचा देव शास्त्र–गुरुनी श्रद्धा–ओळखाण करी छे अने तेमणे कहेला
आकाश वगेरे द्रव्योना विचारमां ज अटकी रह्यो छे पण पोताना स्वभाव तरफ वळतो नथी एवा पात्र जीवने
माटे अहीं उपदेश छे के–हे जीव? पर द्रव्यो तरफ वळीने रागसहित जे ज्ञान जाणे ते तारुं स्वरूप नथी, पण
चैतन्यस्वभावमां वळीने ज्ञाननी जे अवस्था चैतन्यस्वभावमां अभेद थईने स्व–परने जाणे ते तारुं स्वरूप छे.
चैतन्यस्वभावमां वळीने तेमां लीन थयेलो पर्याय ते ज चैतन्यनुं सर्वस्व छे.
अहो, अनंत आकाशने ख्यालमां लेनार एवा ज्ञानने पण जे जीव ‘अचेतन’ स्वीकारशे ते जीव राग–
द्वेषने पोतानां केम मानशे? ने तेनाथी धर्म केम मानशे? परमां क्यांय सुख केम मानशे? ने परनो कर्ता पोताने
केम मानशे? –ए जीव तो पोताना ज्ञानपर्यायनो आश्रय पण छोडीने पोताना परिपूर्ण स्वभाव तरफ वळीने
तेमां लीन थशे. अहो, आवा भगवान चैतन्य स्वभावना स्वीकारमां केटलो पुरुषार्थ छे! पोताना मति–
श्रुतज्ञानने स्वभावमां एक करीने स्वभावना आश्रये हुं ज्ञाताद्रष्टा छुं एम जेणे स्वीकार्युं तेनी ज्ञानचेतना
जागृत थई ते आत्मा पोते जागृत थयो, साधक थयो अने हवे अल्पकाळमां केवळज्ञान लेवानो छे.
–भेदविज्ञानसार
एकवार तो ज्ञानसमुद्रमां डूबकी मार!
पुण्य–पाप ते परसमय छे, अनात्मा छे; तेनुं ज होवापणुं जेने भासे छे ते
मिथ्या द्रष्टि छे. पुण्य–पाप वखते ज चैतन्यस्वभावमां दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी एकता
जेने भासे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. सम्यग्दर्शनना प्रभावे पर्याये पर्याये स्वभावमां एकता
ज वधती जाय छे. माटे आचार्य भगवान कहे छे के हे भाई! एकवार तुं एम तो मान
के ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं, रागादि मारामां छे ज नहि. पर्यायमां रागादि थाय ते मारा
स्वरूपमां नथी, ने मारुं ज्ञान ते रागमां एकमेक थई जतुं नथी. आम राग अने
ज्ञाननी भिन्नताने जाणीने एकवार तो रागथी जुदो पडीने आत्माना ज्ञाननो अनुभव
कर! तारा ज्ञानसमुद्रमां एकवार तो डूबकी मार.
–भेदविज्ञानसार–