Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४७५ : आत्मधर्म : १४१ :




ज्ञानथी आत्मानो धर्म कई रीते थाय छे तेनी आ वात छे. धर्म क्यांय बहारमां तो थतो नथी, ने
आत्माना द्रव्यमां के गुणमां पण थतो नथी, धर्म आत्मानी वर्तमान अवस्थामां थाय छे. हवे ज्ञाननी वर्तमान
अवस्था जो आकाश वगेरे पर द्रव्य तरफ लक्ष करे तो ते अवस्थामां धर्म थतो नथी. ‘बधा द्रव्यो करतां आकाश
द्रव्य अनंतगणुं विशाळ छे’ –एम श्रुतज्ञानना विकल्पथी–रागमां एकता करीने–जे ज्ञान ख्यालमां ल्ये ते ज्ञानने
पण अचेतन पदार्थो साथे अभेद गणीने अचेतन कह्युं छे. अने जे ज्ञान अवस्था आकाश वगेरे पर द्रव्य
तरफना विकल्पथी छूटी पडीने आत्माना स्वभाव तरफ वळे ते ज्ञान रागरहित छे, चेतन साथे अभेद छे, अने
ते ज्ञान ज धर्म छे.
अनंत एवा आकाशने लक्षमां लेवा छतां जे ज्ञान पराश्रित छे ते अचेतन छे; तेम ज आत्मानुं जे
वर्तमान ज्ञान दया वगेरेना विचारमां अटके ते पण अचेतन छे. एक समयना भावश्रुतज्ञानने स्वभाव तरफ
वाळीने त्रिकाळी आत्मस्वभावनी रुचि करतुं जे ज्ञान प्रगटे ते ज्ञान त्रिकाळी चेतन साथे एक थयुं, तेने अहीं
चेतन कह्युं छे. स्वभावनो आश्रय करीने आत्माने जाणे छे ते तो निश्चय छे अने स्वभावना आश्रयपूर्वक
आकाशनी अनंतता वगेरेने जाणे ते व्यवहार छे, ए रीते बेहद चैतन्य स्वभावने लक्षमां लईने तेनो आश्रय
करे तेने ज अहीं यथार्थ ज्ञान कह्युं छे, अज्ञानीना पराश्रित ज्ञानने अहीं ज अचेतनमां गण्युं छे. राग घटाडीने
शास्त्रना आश्रये अगियार अंगने जाणे तो पण ते ज्ञान मात्र रागनुं चक्र बदलीने थयुं छे, ते ज्ञानमां
स्वभावनो आश्रय नथी पण रागनो आश्रय छे, तेथी ते अगियार अंगनुं ज्ञान पण अनादिनी जातनुं ज छे.
आत्मस्वरूपनी रुचि करीने तेमां समाधि–एकाग्रता वडे ज ज्ञान प्रगटे ते अपूर्व छे, मोक्षनुं –कारण छे. भले
शास्त्र वगेरे परनुं बहु जाणपणुं न होय तोपण स्वभावना आश्रये थयेलुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे ने ते
केवळज्ञाननुं कारण छे.
हवे विचारो के, केटला बहारना कारणे आत्मानुं ज्ञान प्रगटे? बाह्य पदार्थोना ज्ञानथी के ते तरफना
शुभरागथी चैतन्यस्वरूप आत्मानुं ज्ञान थाय नहि. आत्मा तरफ वळे तो ज आत्मानुं ज्ञान थाय. जीव करतां
पुद्गल पुद्गल. करतां काळना समयो अने तेना करतां आकाशना प्रदेशो अनंतगुणा छे तेनो ख्याल पर लक्षे
करे, पण ते बधायने ख्यालमां लेनार पोतानो चैतन्यस्वभाव केवो छे तेनो ख्याल न ल्ये तो एकला पर लक्षे
थयेलो ज्ञाननो उघाड कायम नहि टके. आत्मानो स्वभाव स्व–पर प्रकाशक छे, पोताना चैतन्यस्वभावना यथार्थ
ज्ञान वगर परनुं ज्ञान यथार्थ थशे नहि, अने एवा ज्ञानथी आत्माने सुख के धर्म थाय नहि.
बधा द्रव्योमां आकाशनी प्रदेशसंख्या अनंत छे, पण आत्मस्वभावनुं ज्ञानसार्मर्थ्य तेनोथीये अनंतुं छे;
केमके अनंत आकाशने जाणे एवुं ज्ञानना एक पर्यायनुं सामर्थ्य छे, एवा अनंत पर्यायोनो पिंड एक ज्ञान–
गुण छे अने एवा ज्ञान–दर्शन–सुख–वीर्य वगेरे अनंत गुणो आत्मामां छे. एवा चैतन्यस्वभावनी अनंतता
लक्षमां लेतां ज्ञाननी स्व तरफनी अनंतगणी दशा खीली. आकाशनी अनंतता करतां चैतन्यनी अनंतता
अनंतगणी छे तेथी आकाशने लक्षमां लेनार ज्ञान करतां, चैतन्यने लक्षमां लेनार ज्ञानमां अनंतगणुं सामर्थ्य
छे. अने एवा अनंत चैतन्य सामर्थ्यनुं ज्ञान करतां सम्यक् पुरुषार्थ खील्यो छे. आकाशनी अनंतता लक्षमां
लेनारुं ज्ञान पर प्रकाशक छे, तेनो महिमा नथी अने ते खरेखर मोक्षमार्गमां सहायकारी नथी. जे ज्ञान,
स्वभावने पकडीने एकाग्र थाय ते ज्ञाननो महिमा छे. ने ते मोक्षमार्गरूप छे. अहीं पर तरफना ज्ञाननो
निषेध करतां खरेखर तो व्यवहारनो अने पर्याय बुद्धिनो ज निषेध करीने तेनो आश्रय छोडाव्यो छे. आ ज
रीते धर्म थाय छे. आमां पापभावनी वात नथी राग घटाडीने पुण्य करतां करतां धर्म थई जशे एम कोई
माने तो तेने धर्म हराम छे–एटले के जरापण धर्म नथी, पण मिथ्यात्वना पापनी पुष्टि करतां करतां तेना
पर्यायमां निगोद दशा थाय छे.