“भगवाने जातिस्मणज्ञान थाय छे”
: अषाड : २४७५ : आत्मधर्म : १६३ :
दीक्षा कल्याणिक महोत्सव
जेठ सुद ४ ना दिवसे भगवानना वैराग्यनो अने दीक्षा कल्याणिकनो पवित्र दिवस हतो. चक्रवर्ती
महाराजा शांतिनाथप्रभु एकवार अरीसामां जुए छे, त्यां तेमां पोताना बे रूप देखीने आश्चर्य पामे छे अने
अंतर्विचार करे छे के: ‘अहो प्रभु! आपश्रीनी पवित्र
वैराग्य भावनाने धन्य छे. आ समस्त
संसारभावथी विरक्त थईने, आत्माना चिदानंद
स्वभावमां समाई जवा माटे आपश्री जे चिंतवन
करी रह्या छो तेने अमारी अत्यंत अनुमोदना छे.
छखंडना राजभोगने छोडीने आपश्री भगवती
जिनदीक्षा धारण करवानी तैयारी करी रह्या छो ते
खरेखर अमारा धन्यभाग्य छे. प्रभो! आप शीघ्र
केवळज्ञान पामो अने भव्य जीवोने माटे मोक्षनां द्वार
खुल्लां करो... हे देव! आप तो स्वयंबुद्ध छो. आपने
संबोधन करनारा अमे ते कोण? आपना पवित्र
वैराग्यनो जय हो.’
त्यारबाद दीक्षाकल्याणिक उजववा माटे ईन्द्रो पालखी लईने जयजयकार करतां तेमने पूर्वभवोनुं
जातिस्मरण ज्ञान थाय छे; तेथी एकदम वैराग्य पामीने दीक्षानी तैयारी करे छे. भगवानना वैराग्यनी खबर
पडतां ज लौकांतिक देवो आवीने प्रभुनी स्तुति करे छे अने तेमना वैराग्यनी पुष्टि करता आवे छे अने
वैराग्यनी साक्षात्मूर्ति भगवान शांतिनाथप्रभु दीक्षा लेवा माटे तपोवनमां जई रह्या छे, तेमनी पाछळ पाछळ
वैराग्य भावनामां मग्न भक्तजनो जई रह्या छे. ए वखते दीक्षाकल्याणिकनुं स्तवन गवातुं हतुं–
वंदो वंदो परम वीरागी त्यागी जिनने रे,
थाये जिन दिगंबर मुद्राधारी देव,
शांतिनाथ प्रभुजी तपोवनमां संचर्यारे...
भगवाननी दीक्षाना आ वरघोडानुं द्रश्य घणुं भावना भरेलुं हतुं. वनमां जईने प्रभुश्री एक वृक्ष नीचे
बिराजमान थया. भव्यलोको एकी टसे प्रभु सामे ताकी रह्या हता. भगवाने एक पछी एक राजवस्त्रो छोडीने
नग्नमूद्रा धारण करी अने पछी पू. गुरुदेवश्रीए प्रभुनो केशलोच कर्यो. भगवाननी दीक्षा वखतनुं द्रश्य बहु ज
वैराग्यप्रेरक हतुं. ते वखतनुं कुदरती वातावरण पण ए महा वैराग्य प्रसंगने अत्यंत शोभावी रह्युं हतुं. –जाणे के
भगवानना वैराग्यनुं द्रश्य जोईने आखुं आकाश वैराग्यथी छवाई गयुं होय!! अने भगवान उपर गंधोदक
छांटी रह्युं होय! –एवुं ए द्रश्य हतुं.
दिगंबर मुनि थया बाद प्रभुश्री आत्मध्यानमां लीन थया अने तरत ज मनःपर्ययज्ञान प्रगट थयुं. पछी
ए मुनिराज तो वनमां विहार करी गया.
प्रभुश्रीनो दीक्षाविधि पूरो थया बाद त्यां वनमां ज पू. गुरुदेवश्रीए दीक्षाकल्याणिक प्रसंगने शोभतुं
अपूर्व व्याख्यान कर्युं हतुं. ए व्याख्यानमां तो वैराग्यभावनानी रमझट
बोलावी हती. पू. गुरुदेवश्री वैराग्यनी मस्तीए चडया हता अने अंतरमां
वहेतो वैराग्यनो प्रवाह वाणी द्वारा वहेतो मूक्यो हतो..... श्रोताजनो ए
वैराग्य–प्रवाहमां तरबोळ थई गया हता.
व्याख्यान बाद ए तपोवनमां ज शेठश्री त्रिभोवनभाई, कानजीभाई
अने मूळजीभाई–ए त्रणेए पोत–पोताना धर्मपत्नी सहित ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा
अंगीकार करीने ए प्रसंगने दीपाव्यो हतो.
ए रीते प्रभुश्रीनो दीक्षाकल्याणिक उजवीने, ‘अहो! जे पंथे भगवान
ध्यानस्थ मुनि