: १५८ : आत्मधर्म : अषाड : २४७५ :
लेखांक ९] वीर संवत् २४७३ भादरवा सुद २ मंगळवार [अंक ६८ थी चालु
[श्री परमात्म प्रकाश गा. ७]
[६] ज्ञानाचारनी व्याख्या : – मुनिओने नमस्कार करतां तेओना सम्यग्दर्शनादि गुणोनी ओळखाण कराववा
माटे ग्रंथकार तेनुं स्वरूप बतावे छे. तेमां सम्यग्दर्शननुं स्वरूप वर्णवाई गयुं छे. हवे सम्यग्ज्ञाननुं स्वरूप वर्णवे
छे. चिदानंद चिद्रूप एक अखंड स्वभाव परमसत्य छे, एवा पोताना स्वरूपमां संशय, विमोह ने विभ्रमरहित जे
स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहकबुद्धि ते सम्यग्ज्ञान छे. ते सम्यग्ज्ञानरूप परिणमनने ज्ञानाचार कहेवाय छे.
[६७] सम्यग्ज्ञान कोना अाधारे प्रगटे? : – जे निर्मळ आत्मस्वभाव छे ते कोई परनी भक्तिथी के शास्त्र
वांचवाथी प्रगटे–एवो भ्रम सम्यग्ज्ञानमां होतो नथी. आत्मा त्रिकाळ आनंदमूर्ति चिद्रूप छे ते ज परम सत्य छे.
शरीर, मन, वाणीनो तो आत्मामां अभाव छे, रागादि विकारथी पण सम्यग्ज्ञान थतुं नथी, शास्त्रना
जाणपणाथी जे ज्ञान ऊघड्युं तेनाथी पण सम्यग्ज्ञान थतुं नथी अने आत्मानी जे मति–श्रुतज्ञानरूप अधूरी
दशा तेना आश्रये पण सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. पण ते बधायना संबंध रहित एक चिद्रूप आत्मस्वभाव छे ते ज
परमसत्य छे अने तेना आश्रये ज सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे.
जे सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे ते तो पर्याय छे, पण ते कोना आश्रये प्रगटे छे? आत्मा चिद्रूप त्रिकाळशुद्ध छे.
स्वभाव तो त्रिकाळशुद्ध छे ज, तेनी शुद्धता कांई नवी प्रगटती नथी, पण ते त्रिकाळी शुद्ध चिद्रूप स्वभाव छे
तेना आश्रये द्रढ प्रतीति, परमश्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन छे; अने ते स्वभावमां संशयरहित स्वसंवेदनरूप
ज्ञानभाव ते सम्यग्ज्ञान छे. ‘अहो हुं आवो मोटो, अथवा हुं परना आश्रय वगरनो छुं के कांईक अवलंबन
हशे’ एवो संशय सम्यग्ज्ञानमां न होय.
आत्मानो स्वभाव जे त्रिकाळ शुद्ध छे तेना आश्रये जे ज्ञाननुं स्वसंवेदन प्रगट थाय ते सम्यग्ज्ञान छे,
अने ते संशय, विमोह, विभ्रम रहित छे.
[६८] पहेलां शुं करवुं? : – प्रश्न:– आवुं संवेदन न थाय तो पहेलांं शुं करवुं?
उत्तर:– जिज्ञासा होय तो ‘न थाय’ ए प्रश्न न ऊठे. जो आवुं आत्मसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान न थाय तो,
विकारनुं वेदन के जे अनादिथी कर्या करे छे ते ज चालु रहे; जे अनादिथी करे छे ते करवानुं केम कहेवाय? ते कांई
पहेलुं नथी पहेलुं तो तेने कहेवाय के जे पूर्वे कदी कर्युं न होय; अनादिथी नथी कर्युं एवुं सम्यग्ज्ञान ज पहेलुं कर्तव्य छे.
[६९] सम्यग्ज्ञानमां शंकािदनो अभाव : – सम्यग्ज्ञानीने आत्मस्वभावमां संशय–विमोह के विभ्रम न होय;
संशय: आ छीप हशे के चांदी हशे!
विमोह: आ चांदी जेवुं लागे छे, होय ते खरुं! (आने अनध्यवसाय पण कहेवाय छे.)
विभ्रम: चांदीना कटकामां ‘आ छीप ज छे’ एवी कल्पना; (आने विपर्यय पण कहेवाय छे.)
वस्तु त्रिकाळ शुद्ध हशे के तेमां कंईक अशुद्धता हशे–एवी शंका ते संशय छे, –मिथ्याज्ञान छे.
सम्यग्ज्ञानीने त्रिकाळी शुद्ध वस्तुस्वभावमां कदी संशय पडतो नथी. पर्यायमां राग देखीने ‘आ कांईक छे, पण
आत्मा शुं छे, ने राग शुं छे तेनो निर्णय करवानी माथाकूट आपणे शा माटे करवी! ’ आवुं ज्ञान ते विमोह छे.
पर्यायमां रागने देखीने एवी भ्रमणा करवी के ‘आ राग ते जीवनुं स्वरूप छे अथवा ‘जीवनो स्वभाव
रागवाळो ज छे’ –ते विभ्रम छे.
त्रिकाळ शुद्ध स्वभाव कोई पण परना आश्रये प्रगटे एवी मान्यता ते विभ्रम छे, मिथ्याज्ञान छे. अथवा
तो पर्यायमां क्षणिक रागादिने जोईने ‘मारो त्रिकाळी स्वभाव रागरूप छे’ एवो भ्रम ते विभ्रम छे. सम्यग्ज्ञानी
जीवोने उपरना दोषो होता नथी.
[७०] सम्यग्ज्ञानीने ग्राहकबुिद्ध शेमां होय? : – आत्मा वस्तु छे, ते त्रिकाळ छे. ते क्षणिक भावोथी टकतो
नथी पण त्रिकाळ स्वभावथी ज टकेलो छे. अने