Atmadharma magazine - Ank 069
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४७५ : आत्मधर्म : १५९ :
तेनी जे परिणति बहारनो आश्रय छोडीने आत्मस्वभावमां ज वळे छे ते ज सम्यग्ज्ञान छे. शास्त्र वांचीने
ज्ञान पामुं के श्रवण करीने ज्ञान पामुं–एवी ग्राहक बुद्धि ते मिथ्याज्ञान छे. पोताना त्रिकाळी स्वभावमांथी
अपूर्व सम्यक्श्रतनुं ग्रहण थाय छे. शास्त्रना जाणपणानी उघाड बुद्धिथी सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. ज्यारे सम्यग्ज्ञान
प्रगटे छे त्यारे ते सीधुं आत्मस्वभावना संवेदनथी ज प्रगटे छे; जे एवुं स्वसंवेदन करे तेने श्रवण वगेरे
निमित्तरूप कहेवाय छे. शास्त्रादि तरफनो जे बोध तेनी पण ग्राहक बुद्धि छोडीने त्रिकाळ परम शुद्ध स्वभावना
संवेदनरूप ग्राहकबुद्धि ते सम्यग्ज्ञान छे. ज्ञानीने–गणधरदेवने पण विकल्प ऊठे त्यारे शास्त्रस्वाध्याय,
दिव्यध्वनिनुं श्रवण होय खरा पण तेनी ग्रहणबुद्धि नथी, तेनाथी सम्यग्ज्ञान थवानुं मानता नथी.
[] म्ग्ज्ञ प्र : प्रश्न:– जे शास्त्र वांचता हशे ते ज्ञान वधारवा वांचता हशे, कांई राग
वधारवा माटे नहि वांचता होय!
उत्तर:– शास्त्रना लक्षे राग घटे अने ज्ञाननो उघाड थाय, पण ते ज्ञान सम्यग्ज्ञान नथी. स्वभावनी
द्रष्टिपूर्वक जे ज्ञान ऊघडे ते ज सम्यग्ज्ञान छे. अज्ञानी जीव, पोते त्रिकाळ मुक्त, त्रिकाळ शुद्ध, त्रिकाळ
आनंदमय, त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छे तेनो आश्रय करतो नथी ने पर्यायनी अशुद्धताने संभारे छे–पण ज्ञानी कहे
छे के तारी वर्तमान पर्यायने तो अमे स्वभावमां वाळवानुं कहीए छीए, माटे अशुद्ध अवस्थाने भूली जा
(गौण कर) अने त्रिकाळ जे परम सत्य भूतार्थ स्वभाव छे तेनो आश्रय कर, तेमां तारी वर्तमान पर्यायने
वाळ, तेथी पर्यायनी अशुद्धता टळी जशे.
[] न् स् म्ग्ज्ञ प्र ि. : ज्यारे दरियामां भरती आवे ने पाणी ऊछळे
त्यारे लाख–लाख किरणोथी सूर्य तपे के दरियाना पाणीमां वडवाग्नि सळगे तोपण ते कोई भरतीने अटकाववा
समर्थ नथी, केम के मूळमांथी ज पाणी ऊछळ्‌युं छे; तेम चैतन्यस्वभावमां परिणति वळी त्यां ज्ञाननी भरती
अंदरना मूळमांथी ऊछळी, ते भरतीने कोई रोकी शके नहि; ते वखते शास्त्रादिनुं ज्ञान न होय तोपण अंदरथी
ज्ञानमूर्तिनुं वेदन करीने जे सम्यग्ज्ञान ऊछळ्‌युं ते अटके नहि.
अने दरियामां ज्यारे ओट आवे ने पाणी ऊतरी जाय ते वखते धोधमार वरसाद वरसे के लाखो नदीनां
पाणी ठलवाय तोपण दरियामां भरती आवे नहि, केमके ते मूळमांथी उछाळो आव्यो नथी, तेम चैतन्य
स्वभावना वेदन वगर बहारथी कोई रीते सम्यग्ज्ञाननी भरती ऊछळे नहि. बहु शास्त्रो वांचीने, घणा
शुभविकल्पो करीने के घणुं श्रवण करीने आत्मस्वभावना सम्यग्ज्ञाननी भरती थई शके नहि; अंदरथी ज्ञान
स्वभावना संवेदन वगर कोई पण रीते सम्यग्ज्ञान थाय नहि. शास्त्रसन्मुखबुद्धि ते पण सम्यग्ज्ञाननो आचार
नथी पण परमशुद्ध चैतन्य स्वभावनी सन्मुख थईने स्वसंवेदननुं ग्रहण ते ज सम्यग्ज्ञाननो आचार छे.
[] िद्र स् स् ्रह्य . : प्रश्न:– भले, ज्ञान तो आत्माना स्वभावमांथी ज प्रगटे
छे, पण वच्चे शास्त्रस्वाध्याय के शुभविकल्प तो आवशे ने? –व्यवहारनयनो पक्ष तो आवशे ने!
उत्तर:– ए बधुं छोडवा माटे छे तो पछी तेनुं स्मरण शुं? चैतन्यस्वभावनो आश्रय करवानी वात वखते
जेने व्यवहारनी भावना थाय छे तेनी द्रष्टि ज ऊंधी छे, तेने व्यवहारनो पक्ष छे. जेम माखी सहित मिष्टान्न
खवाई गयुं अने खबर पडतां ऊलटी थई, त्यां ते ऊलटीना स्वादने चाखवा ईच्छतो नथी; तेम सम्यग्ज्ञान
पछी जे विकल्प के रागरूप व्यवहार आवे ते निषेध माटे छे पण संवेदन माटे नथी. जे कांई व्यवहारनय आवे
तेनो आश्रय छोडवा जेवो ज छे. माटे परमभूतार्थ चिद्रूप स्वभावनुं स्वसंवेदन ते ज ग्रहण करवा योग्य छे,
एवा स्वसंवेदननुं जेमणे ग्रहण कर्युं छे ते सम्यग्ज्ञानी छे. आवी सम्यग्ज्ञाननी ओळखाणपूर्वक अहीं आचार्य–
उपाध्याय–साधुने नमस्कार करवामां आव्यो छे.
[] म्ित्र : मुनिओना पंचाचारनुं वर्णन चाले छे, तेमां सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञाननुं वर्णन कर्युं, हवे सम्यक्चारित्रनुं वर्णन करे छे–
नित्य आनंदमय आत्मस्वभावना निर्विकारी शांत निज रसनो आस्वाद ते सम्यक्चारित्र छे. जांबु,
मेसुब वगेरे परद्रव्यना रसने तो आत्मा चाखतो नथी, ते तो जड छे, अने ते तरफनो राग ते विकाररस छे.
शुभ–अशुभभाव थाय तेनो विकारी रस छे; अने आत्मा त्रिकाळज्ञायकमूर्ति