पोते ज छे, तो जाणनार पोते पोताना स्वभावने केम न जाणी शके? स्वभावनी रुचि ने महिमाथी अवश्य झट
जाणी शके छे.
लूगडां छोडयां ते चारित्रदशा हशे? के आलीदुवालि मनावे छे तेवुं चारित्र हशे? चारित्रदशा लूगडामां, लूगडाना
त्यागमां, शरीरमां के दयादिनी वृत्तिमां नथी. परम स्वभावना निजानंदरसनो अनुभव ते चारित्रदशा छे. ए
चारित्रदशाने दुःखरूप माने ते अज्ञानी छे. स्वभावना वेदनमांथी आनंदना झरणांनो अनुभव थाय तेनुं नाम
चारित्रदशा छे; एवा चारित्र आचारना पाळ–नार संतो ते आचार्य–उपाध्याय–मुनि छे, तेमने अहीं नमस्कार
छे. अहीं दर्शन–ज्ञान–चारित्र तप अने वीर्य एवा पांच भेदथी समजाव्युं छे पण खरेखर पांच जुदा नथी,
शुद्धस्वरूपना संवेदनमां ज निश्चय पंचाचार समाई जाय छे.
स्वभावामां ज सहज आनंदरूप तपश्चरणस्वरूप (चैतन्यना प्रतपनरूप) परिणमन ते तप छे, त्यां ईच्छानो
निरोध छे. आनुं नाम सम्यक् तप छे. पण बे दिवस आहार छोड्यो ने घी–दूध न लीधा तेथी तप मानी लीधो
ते मिथ्याद्रष्टि छे.
छठ्ठनी तपस्या तमे करो छो!’ त्यारे ते सांभळीने तपनी तीव्र अभिमानी ते व्यक्तिए कह्युं के– ‘भाई,
गौतमस्वामी तो छठ्ठना पारणा वखते घी–गोळ (विगय) वापरता अने हुं तो ते नथी वापरतो.’ तेनो आशय
एवो हतो के गौतम–भगवान करतां पण मारो तप ऊंचो छे. ज्ञानी कहे छे के–अरे पामर! घी–गोळ (विगय)
छोडयां तेमां ज तारो तप आवी गयो? गणधरदेवनी तुं महान विराधना करी रह्यो छे. अहो, क्यां भगवान
गौतमगणधर, अने क्यां तुं! हजी सम्यक्श्रद्धानुं पण तने ठेकाणुं नथी! बहारना पदार्थो छूटवाथी तप थई जतो
नथी पण सहज आनंदस्वरूपमां परिणमन करतां ईच्छा तूटी जाय छे ते ज तप छे.
पांच आचार मुनिओने होय छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने दर्शन तथा ज्ञान आचार होय छे पण पांचे आचार
होता नथी.
व्यवहार आचार होय छे. व्यवहार आचार ते रागरूप छे, पण निश्चय पंचाचार प्रगट्या वगर तो शुभरागने
व्यवहारआचार पण कहेवाय नहि.
वगर जे एकला शुभरागरूप व्यवहार पंचाचार होय तेनाथी निश्चयपंचाचार प्रगटता नथी. अहीं टीकामां
पंचाचार मुनिने केवा होय छे तेनुं स्वरूप हवे कहे छे.