Atmadharma magazine - Ank 069
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १६० : आत्मधर्म : अषाड : २४७५ :
त्रिकाळ आनंदरसमय छे. तेनी एकाग्रता वडे निर्विकार ज्ञानमय निजरसनो अनुभव ते सम्यक्चारित्र छे.
[७५] स्वभव झट समजाय तव छ. : – “परद्रव्यनी वात के वकिारनी वात मने झट समजाय पण
आत्मस्वभावनी वात मने झट समजाय नहि” एम जे माने छे तेने स्वभावनी रुचि नथी. परने जाणनार तो
पोते ज छे, तो जाणनार पोते पोताना स्वभावने केम न जाणी शके? स्वभावनी रुचि ने महिमाथी अवश्य झट
जाणी शके छे.
[] ित्र ! : गणधरदेव पण विकल्प ऊठे त्यारे कहे छे के ‘नमो लोए सव्व साहूणं’ –सर्व
साधुओना चरणमां नमस्कार थाओ! तो ए साधुपद केवुं हशे के जेने गणधरदेव पण नमस्कार करे छे! शुं
लूगडां छोडयां ते चारित्रदशा हशे? के आलीदुवालि मनावे छे तेवुं चारित्र हशे? चारित्रदशा लूगडामां, लूगडाना
त्यागमां, शरीरमां के दयादिनी वृत्तिमां नथी. परम स्वभावना निजानंदरसनो अनुभव ते चारित्रदशा छे. ए
चारित्रदशाने दुःखरूप माने ते अज्ञानी छे. स्वभावना वेदनमांथी आनंदना झरणांनो अनुभव थाय तेनुं नाम
चारित्रदशा छे; एवा चारित्र आचारना पाळ–नार संतो ते आचार्य–उपाध्याय–मुनि छे, तेमने अहीं नमस्कार
छे. अहीं दर्शन–ज्ञान–चारित्र तप अने वीर्य एवा पांच भेदथी समजाव्युं छे पण खरेखर पांच जुदा नथी,
शुद्धस्वरूपना संवेदनमां ज निश्चय पंचाचार समाई जाय छे.
[७] सम्यक तपन स्वरूप : – र्दशन, ज्ञान ने चारत्रि आचार र्वणव्या; हवे चोथा–तपाचारनुं र्वणन करे छे.
सम्यग्दर्शन वडे जे परम आत्मस्वभावनी द्रढ प्रतीति थई छे तथा सम्यग्ज्ञानवडे जेनुं स्वसंवेदन प्रगटयुं छे ते
स्वभावामां ज सहज आनंदरूप तपश्चरणस्वरूप (चैतन्यना प्रतपनरूप) परिणमन ते तप छे, त्यां ईच्छानो
निरोध छे. आनुं नाम सम्यक् तप छे. पण बे दिवस आहार छोड्यो ने घी–दूध न लीधा तेथी तप मानी लीधो
ते मिथ्याद्रष्टि छे.
एक वखत ‘साधु’ नामधारी एक व्यक्ति बे–बे दिवस आहार छोडे अने पारणाने दिवसे घी वगेरे न
खाय. त्यारे तेना कोई भक्ते तेने कह्युं– ‘अहो तमे तो चोथा आरानी वानगी छो, गौतमगणधर जेवी छठ्ठ–
छठ्ठनी तपस्या तमे करो छो!’ त्यारे ते सांभळीने तपनी तीव्र अभिमानी ते व्यक्तिए कह्युं के– ‘भाई,
गौतमस्वामी तो छठ्ठना पारणा वखते घी–गोळ (विगय) वापरता अने हुं तो ते नथी वापरतो.’ तेनो आशय
एवो हतो के गौतम–भगवान करतां पण मारो तप ऊंचो छे. ज्ञानी कहे छे के–अरे पामर! घी–गोळ (विगय)
छोडयां तेमां ज तारो तप आवी गयो? गणधरदेवनी तुं महान विराधना करी रह्यो छे. अहो, क्यां भगवान
गौतमगणधर, अने क्यां तुं! हजी सम्यक्श्रद्धानुं पण तने ठेकाणुं नथी! बहारना पदार्थो छूटवाथी तप थई जतो
नथी पण सहज आनंदस्वरूपमां परिणमन करतां ईच्छा तूटी जाय छे ते ज तप छे.
[] र् स्रू : पांचमो वीर्य आचार छे तेनुं वर्णन करे छे–सम्यग्दर्शने जे परमानंद स्वरूप
भूतार्थ स्वभावने स्वीकार्यो छे ते स्वरूपमां ज पोतानी शक्तिने प्रगट करीने परिणमवुं ते वीर्याचार छे. आ
पांच आचार मुनिओने होय छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने दर्शन तथा ज्ञान आचार होय छे पण पांचे आचार
होता नथी.
[] िश्च व् : हवे जे संत–मुनिओने उपर्युक्त निश्चय पंचाचार होय छे
ते संतोने विकल्परूप व्यवहार पंचाचार केवा होय छे तेनुं ज्ञान करावे छे. निश्चय पंचाचार होय त्यां ज आ
व्यवहार आचार होय छे. व्यवहार आचार ते रागरूप छे, पण निश्चय पंचाचार प्रगट्या वगर तो शुभरागने
व्यवहारआचार पण कहेवाय नहि.
आ निश्चय व्यवहार संबंधी ए खास समजवा जेवुं छे के–निश्चयपंचाचारना सद्भावमां व्यवहार
पंचाचारमां कांईक दोष आवी जाय तो तेथी निश्चयपंचाचारनो नाश थई जतो नथी; अने निश्चयपंचाचार
वगर जे एकला शुभरागरूप व्यवहार पंचाचार होय तेनाथी निश्चयपंचाचार प्रगटता नथी. अहीं टीकामां
व्यवहारपंचाचारने “बाह्य आचार” कह्या छे. शुभराग थाय ते आत्माना स्वभावथी बाह्य छे. ए व्यवहार–
पंचाचार मुनिने केवा होय छे तेनुं स्वरूप हवे कहे छे.
[] व् : निःशंक्ति वगेरे आठ अंग ते सम्यग्दर्शनना बाह्य आचार छे; शास्त्रना शब्दोनो
शुद्ध उच्चार तथा तेना शुद्ध अर्थ वगेरे आठ प्रकारना सम्यग्ज्ञानना बाह्य आचार
(अनुसंधान पान १६८)