Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १७२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७५ :
रात्रिर्चानो सार: वीर सं. र४७४ भादरवा सुद १३
छद्मस्थ जीवने ज्ञाननो उपयोग असंख्यात समयनो छे अने रागनी परिणति एकेक समयनी छे.
असंख्य समयनो उपयोग ते एक समयनी परिणतिने पकडी शकतो नथी.
[] एक समयनी पर्यायने पकडवा जतां, ते समय तो पकडातो नथी पण पर्यायने धारण करनार
त्रिकाळी द्रव्यनी प्रतीति थाय छे अने ते द्रव्यना आश्रये केवळज्ञान थतां ते एकेक समयनी पर्यायने पण जाणे छे.
[] छद्मस्थ जीवने ज्ञान उपयोगमां एक समयनी परिणति ज पकडाती नथी, तो पछी पर वस्तुनुं
ग्रहण त्याग तो क्यां रह्युं?
[] श्रद्धानी परिणति एक समयमां आखा द्रव्यने कबूले छे. पण ते श्रद्धानी परिणति असंख्य समये
ज्ञानना उपयोगमां आवे. श्रद्धाए जेने विषय कर्यो छे ते द्रव्यस्वभावना आश्रये ज्ञाननो उपयोग सूक्ष्म थतां
थतां एक समयने पकडे तेवो थई जाय छे––केवळज्ञान थाय छे. अने त्यारे प्रतीति (श्रद्धा) नी निर्मळताना
अविभाग प्रतिच्छेदो पण वधी जाय छे, ने तेने परमावगाढ श्रद्धा कहेवाय छे.
[] ‘आत्मा’ शब्दमां एक ‘आ’ अनंत पुद्गलनो स्कंध छे. ‘आ’ एम बोलाय त्यां तो असंख्य समय
चाल्या जाय छे, ने ते पुद्गल स्कंधनी असंख्य पर्यायो पलटी जाय छे. जीव ते पर्यायोने तो जाणतो पण नथी, तो
ते शब्दने कई रीते परिणमावे? तेवीज रीते हाथ चाले, तो त्यां पुद्गलना अनंतगुणो एक साथे परिणमी रह्या
छे, ने एकेक समयमां तेनुं परिणमन थाय छे, ते गुणोने के तेना एकेक समयना परिणमनने जीव जाणी शकतो
नथी, तो तेने हलावे कई रीते? एक समयनी अवस्थाने जाणवा ज्ञान लंबातां ते ज्ञान त्रिकाळी द्रव्यगुणमां
अभेद थाय छे ने द्रव्यनी प्रतीति थाय छे, अने ते द्रव्यना आश्रये ज्ञान सूक्ष्म थतां केवळज्ञान थाय छे. ए रीते
संपूर्ण स्वपरप्रकाशक स्वभाव खीली जतां ज्ञानना सामर्थ्यमां स्व–पर बधुं एक साथे एक समयमां जणाई जाय
छे, एवो ज्ञाननो स्वभाव छे. परने जाणवा माटे ते ज्ञानने परलक्ष करवुं पडतुं नथी.
[] क्रियावती शक्तिना परिणमनमां पण तारतम्यता होय छे. जेम क्षायोपशमिक ज्ञाननो अमुक
विकास अने अमुक आवरण होय छे, तथा आंख वगेरे स्थाने रहेला अमुक प्रदेशेथी ज तेनो उपयोग थाय छे,–
ए रीते आत्माना अनेक गुणोमां विचित्रता छे; तेम आत्मानी क्रियावती शक्तिमां पण विचित्रता छे. आत्मानी
क्रियावती शक्ति अनादि अनंत छे, तेनी पर्यायमां अमुक प्रदेशो हाले अने अमुक स्थिर रहे एवी विचित्रता
थाय छे. जेमके कोई वार हाथ चालतो होय त्यारे ते हाथना क्षेत्रना आत्मप्रदेशो चालता होय अने बाकीना
आत्मप्रदेशो ते ज वखते स्थिर होय–आवो क्रियावती शक्तिनी पर्यायनी तारतम्यतानो स्वभाव छे.
जीवना अनंतगुणोनुं परिणमन समये समये थया करे छे. एक समयना पर्यायमां चारित्रगुण रागरूपे
परिणम्यो ते वखते ज श्रद्धा–ज्ञान वगेरे गुणो पण परिणमे छे. पण छद्मस्थ जीवना ज्ञानमां एक समय पूरतो
राग पकडातो नथी, छद्मस्थनुं ज्ञान एक समयने ख्यालमां लई शकतुं नथी. तेना ज्ञाननो उपयोग एवो स्थूळ
छे के ते जातनो विकार असंख्य समय सुधी लंबाईने तेनुं स्थूळरूप थाय त्यारे असंख्यसमयना स्थूल
उपयोगवडे ज्ञान तेने जाणे छे. त्यां रागनी परिणति तो एकेक समये परिणमे छे, ने राग साथेना ज्ञाननुं
परिणमन तो एकेक समये थाय छे पण ते ज्ञाननो उपयोग असंख्य समयनो छे. ते ज्ञानमां एक समयनी
परिणति क्यारे जणाय? रागना लक्षे ते जणाय नहि. पण राग अने अपूर्णता रहित त्रिकाळ परिपूर्ण पोतानुं
स्वरूप छे–ते स्वरूपनो विश्वास करीने अने तेमां अभेद थईने ज्यारे श्रद्धापर्याय परिणमे त्यारे ‘एकेक समयनुं
परिणमन स्वतंत्र छे अने ते एकेक समयने जाणवानी ज्ञाननी ताकात छे’ –एम विश्वास प्रगटे. छतां ज्ञान
ज्यांसुधी पूरुं अभेद थईने न परिणमे त्यां सुधी ते ज्ञान एकेक समयने जाणी न शके. श्रद्धाए जे परिपूर्ण
स्वभावनी प्रतीति करी, ते स्वभावमां ज अभेद थईने परिणमतां ज्ञाननो उपयोग क्रमेक्रमे सूक्ष्म थवा लाग्यो
अने स्वभावमां पूरुं लीन थतां एकेक समयने पण जाणे एवुं सूक्ष्मज्ञान (केवळज्ञान) थाय छे. पहेलांं
स्वभावमां