Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 4 of 17

background image
: श्रावण : २४७५ : आत्मधर्म : १७३ :
अभेद थतां एक समयने जाणवानी प्रतीत थई अने पछी स्वभावना ज आश्रये ज्ञाननी निर्मळता थतां थतां
एक समयने जाणे तेवी ताकात प्रगटी. आ रीते एकेक समयने जाणवा माटे स्वभावनो आश्रय करवानुंज आव्युं.
पहेलांं पर तरफनो रागवाळो जे उपयोग असंख्य समय सुधी लंबाता स्थूळ पर्यायने ज पकडी शकतो
हतो ते उपयोय स्वभावमां वळीने तेमां अभेद थयो त्यां द्रव्य–गुण–पर्यायनी अभेदता थतां एकेक समयना
पर्यायने सर्व प्रकारथी जाणी शके एवुं परिपूर्ण ज्ञानसामर्थ्य प्रगट्युं.
आमां बे वात करी. (१) एकेक समयनी पर्यायनी प्रतीति क्यारे थाय अने (र) एकेक समयनी
पर्यायनुं ज्ञान क्यारे थाय? (१) पहेलांं, जो वर्तमान प्रतीति त्रिकाळी द्रव्यमां अभेद थाय तो एकेक समयना
पर्यायनी तारतम्यतानी प्रतीति थाय. एवी प्रतीति थतां सम्यग्ज्ञान थयुं, छतां साधकनुं ज्ञान एक समयने
पकडी शके नहि. (२) एक समयने ज्ञान क्यारे पकडी शके? श्रद्धाए जे स्वभावनी प्रतीत करी ते स्वभावमां
ज्यारे ज्ञान पूरेपूरुं लीन थाय त्यारे ते स्वभावना आश्रये एक समयने पकडे तेवुं ज्ञानसामर्थ्य प्रगटे–अर्थात्
केवळज्ञान थाय एटले, एक समयनी पर्यायने पकडवानुं कहेतां पर्याय सामे लक्ष करवानुं नथी रहेतुं पण
त्रिकाळी द्रव्य गुणमां ज अभेद थवानुं आवे छे. पर्यायना लक्षे एक समय पकडाय नहि माटे एक समयने
पकडवानुं कहेतां तो द्रव्य–गुण–पर्यायनुं अभेदपणुं करवानुं ज आवे छे.
जेम एक समयना लक्षे एक समयनुं ज्ञान थाय नहि, तेम एक समयनी पर्यायना लक्षे एक समयनी
प्रतीति थाय नहि, पण त्रिकाळी स्वभावमां प्रतीतिपर्याय अभेद थाय त्यारे एकेक समयनी स्वतंत्रतानी प्रतीति
थाय छे. त्रिकाळस्वभावनी प्रतीत वगर एक समयनी साची प्रतीत थाय नहि. ए रीते एक समयनी पर्यायनी
स्वतंत्रता कबूलवामां पण प्रतीतिने त्रिकाळीद्रव्यमां ज अभेद थवानुं आवे छे, अने एक समयनुं ज्ञान करवामां
पण त्रिकाळी द्रव्यमां ज उपयोगनुं अभेदपणुं आवे छे.
× × × × × ×
जीव द्रव्य छे, तेमां अनंत गुणो छे; ते बधा गुणोनुं समये समये परिणमन थाय छे एटले एकेक
समयमां अनंत पर्यायो थाय छे. अने वस्त्र वगेरे जड पदार्थमां पण अनंत गुणो छे, तेनी पर्याय समये समये
बदलाय छे. ते एकेक समयनी पर्यायोने छद्मस्थ जीव जाणी शकतो नथी. ‘हुं आ वस्त्र ग्रहण करुं अथवा हुं आ
वस्त्र छोडुं’ एवो विकल्प जीवने थयो. त्यां चारित्रगुण एकेक समये परिणमी रह्यो छे अने ज्ञानगुण पण एकेक
समये परिणमी रह्यो छे, छतां ते विकल्पने एक समयमां, ज्ञान जाणी शकतुं नथी. पण चारित्रनी एवी ने एवी
विकारी पर्याय असंख्य समय लंबाणी त्यारे ज्ञानना स्थूळ उपयोगमां तेनो ख्याल आव्या. खरेखर विकल्प
अर्थात् राग तो एक समयनी पर्यायमां ज छे, असंख्य समयनी पर्यायनो राग भेगो थतो नथी. पोतानी एकेक
समयनी पर्यायने पण छद्मस्थ जीव पकडी शकतो नथी तो पछी वस्त्र वगेरे परद्रव्यनी पर्यायने ग्रहे के छोडे–ए
वात क्यां रही? वळी जेम पोतामां एकेक समयनी रागपर्यायने पकडी शकतो नथी तेम पुद्गलमां पण समये
समये थती पर्यायने ते जाणी शकतो नथी. “हुं वस्त्रने पकडुं के छोडुं” एवो विकल्प थयो त्यां तो वस्त्रना
अनंतगुणोनी असंख्य पर्यायो बदली गई छे, तेने जीव जाणी पण शकतो नथी तो पछी ते वस्त्रने ग्रहे के छोडे
क्यांथी? परने ग्रहवानी के छोडवानी मान्यता तो अज्ञान अने भ्रम छे.
जेम परनी एकेक समयनी पर्यायने के पोतामां थतां रागनी एकेक समयनी पर्यायने जीव पकडी शकतो
नथी तेम पोतानी एकेक समयनी निर्मळदशाने पण छद्मस्थ जीव पकडी–जाणी शकतो नथी. सम्यक् श्रद्धाए
अखंड द्रव्यस्वभावनी प्रतीत करी, त्यां श्रद्धानुं कार्य तो एक समयनुं ज छे, तेनी पर्याय एकेक समये पलटे छे.
ते एक समयनी पोतानी निर्मळ पर्यायने पण छद्मस्थनुं ज्ञान पकडी शकतुं नथी एकेक समयनी पर्यायने ज्ञान
क्यारे जाणी शके? परना लक्षे, विकारना लक्षे के पर्यायना लक्षे एक समयने जाणी शके नहि, पण पोताना
अखंड परिपूर्ण स्वभावना आश्रयनुं ग्रहण करीने त्यां लीन थतां परिपूर्ण केवळज्ञान प्रगटी जाय छे एटले
ज्ञाननो स्व परप्रकाशस्वभाव पूर्णपणे खीली जाय छे. त्यां अभेदपणे पोताना स्वभावनुं प्रकाशन थतां सर्वे पर
पदार्थोनुं पण ज्ञान एक समयमां थई जाय छे. जे ज्ञान एकला स्वभावनुं ग्रहण करीने स्वभावमां अभेद थयुं
ते ज्ञानम समस्त स्व–पर पदार्थोनुं एक समयमां ग्रहण (ज्ञान) थाय छे. ए रीते खरेखर ज्ञानमां अभेद
स्वभावनुं ज ग्रहण आवे छे अने त्यां रागनो त्याग थई जाय छे. आ सिवाय बीजाना ग्रहण–