Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 17

background image
: १७४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७५ :
त्याग आत्मामां नथी. अज्ञानी जीव परने ग्रहण–त्याग करवानुं भ्रमथी माने छे, परंतु ते जीव पण परने तो
ग्रही के छोडी शकतो नथी. केम के ते तो परनी पर्यायने जाणी पण शकतो नथी तो तेनुं ग्रहण–त्याग क्यांथी करी
शके? अने ज्ञानस्वभावमां ठरतां एकेक समयने जाणे तेवुं सामर्थ्य प्रगट्युं, पण त्यां तो परने ग्रहवा–छोडवानो
विकल्प ज होतो नथी एटले तेने पण परनुं ग्रहण के त्याग नथी. आ रीते विकारथी के स्वभावथी आत्माने पर
वस्तुनुं ग्रहण के त्याग नथी.
छद्मस्थना उपयोगमां श्रद्धागुणनी पर्याय असंख्य समये ख्यालमां आवे छे, परंतु ते श्रद्धागुणनी पर्याय
अखंड स्वभावनी प्रतीतिरूप कार्य तो एकेक समयमां ज करे छे. श्रद्धा कांई असंख्य समये कार्य करती नथी. ते
एक समयनी श्रद्धापर्यायने पकडतां ज्ञान उपयोगमां असंख्यात समय लागे छे. त्यां ते ज्ञान साथेनी श्रद्धा
पर्याय पण अविभाग प्रतिच्छेदोनी अपेक्षाए हीणी छे. अने ज्यारे ते ज्ञान उपयोग स्वद्रव्यस्वभावमां लीन
थईने सूक्ष्म थतां केवळज्ञान थाय छे त्यारे ते ज्ञाननी साथे श्रद्धापर्यायना अविभाग प्रतिच्छेदो पण वधी जाय
छे ने त्यारे तेने परमावगाढ सम्यक्त्त्व कहेवाय छे. आ रीते अभेदस्वभावना आश्रये ज्यां ज्ञान एक समयने
पकडे एवुं सूक्ष्म थयुं त्यां श्रद्धा पण उग्र थईने परमावगाढ थई. जो के ज्ञान ज्यारे एक समयने जाणतुं न हतुं
त्यारे पण प्रतीत तो एक समयमां ज कार्य करती हती पण ते वखते तेनी निर्मळताना सामर्थ्यअंशो ओछा
हता, अने केवळज्ञान थतां तेनुं सामर्थ्य वध्युं एटले तेने परमावगाढ श्रद्धा कहेवाणी.
पर उपर लक्ष करवा जतां ज्ञान एक समयने पकडी शकतुं नथी अने राग तूटतो नथी. ज्ञान ज्यां
यथार्थपणे एक समयने लक्षमां लेवा जाय त्यां तेनो उपयोग सूक्ष्म थईने त्रिकाळी स्वरूपमां अभेद थाय छे.
पहेलांं तो ज्ञान अभेदस्वभाव तरफ वळतां अभेदद्रव्यनी प्रतीत अने सम्यग्ज्ञान थाय छे, पछी ते अभेदद्रव्यमां
लीन थतां राग टळी जाय छे ने केवळज्ञान प्रगटे छे. ते ज्ञान एक समयने पण जाणी ले छे. आ रीते एक
समयनी पर्यायने जाणवा माटे पण ज्ञानने पोताना स्वभावमां अभेद करवुं ते ज उपाय आव्यो. ज्ञान पोताना
स्वभावमां अभेद थतां तेमां एक समयमां बधुं सहजपणे जणाई जाय छे, परने जाणवा माटे ते तरफ उपयोग
मूकवो पडतो नथी.
आत्मामां अनंत गुणो छे, तेमां एक क्रियावती शक्ति पण छे. जेम ज्ञानादि गुणना परिणमनमां
तारतम्यता छे तेम आ क्रियावती शक्तिना परिणमनमां पण तारतम्यता होय छे. जेम ज्ञानादि गुणो
द्रव्यप्रमाण असंख्य प्रदेशी छे तेम क्रियावती–शक्ति पण असंख्यप्रदेशी छे. जेम क्षयोपशम ज्ञानदशामां कांईक
विकास अने कांईक विकासनो अभाव एम तारतम्य छे तथा ते क्षयोपशमज्ञानदशा द्रव्यप्रमाण होवा छतां
अमुक नियत प्रदेशेथी अमुक विषयने ज जाणे–एवी तेमां तारतम्यता छे, तेम क्रियावती शक्तिनी पर्याय पण
द्रव्य–प्रमाण होवा छतां तेमां अमुक प्रदेशे क्षेत्रांतर थाय अने अमुक प्रदेशे न थाय–एवी तारतम्यता छे. वळी
योग गुणनी पर्याय पण आत्मा प्रमाणे होवा छतां तेमां मध्य रुचक प्रदेश अकंप–रहे छे ने बीजा कंपे छे एवी
तारतम्यता होय छे, तेम क्रियावती शक्तिमां पण क्षेत्रांतरनी तारतम्यता होय छे.
स्वाश्रयी देडकुं ने पराश्रयी द्रव्यलिंगी
ज्ञान तो आत्मानो स्वभाव छे, अने तेनो पर्याय जो पर तरफ वळीने ज जाणे तो भगवान तेने
‘अचेतन’ कहे छे; केम के ते ज्ञान स्वभावनी रुचिथी प्रगट्युं नथी, पण परनी रुचिथी रागनी मंदता थईने
प्रगट्युं छे. एक देडकानो आत्मा पण चैतन्यना पर्यायने स्वमां वाळीने एकाग्र करे तो तेना ज्ञानने चेतन कह्युं
छे, ते धर्मी छे, तेना आत्मामां क्षणे क्षणे धर्म थाय छे. अने कोई दिगंबर जैन द्रव्यलिंगी साधु थईने २८ मूळ
गुणने पंचमहाव्रत चोकखां पाळे, नव तत्त्वनी व्यवहार श्रद्धा करे ने अगीयार अंग सुधी भणी जाय,
जैनदर्शनमां कहेली बधी व्यवहारनी रीत करे पण पोताना स्वावलंबी चैतन्य स्वभावमां लक्ष न करे तो तेनुं
बधुंय ज्ञान ने चारित्र मिथ्या छे, भगवान तेना ज्ञानने अचेतन कहे छे; ते गमे तेटलुं करे पण तेने धर्म थतो
नथी, क्षणे क्षणे अधर्म थाय छे. माटे–बहारमां नानामोटा शरीर साथे के अंतरमां ज्ञानना उघाड साथे धर्मनो
संबंध नथी; पण पोताना ज्ञानमां स्वाश्रय करे छे के पराश्रय करे तेनी साथे धर्म के अधर्मनो संबंध छे. जो
स्वाश्रय करे तो देडकानो आत्मा य धर्म पामे छे, ने स्वाश्रय न करे तो द्रव्यलिंगी मिथ्याद्रष्टि साधु य धर्म
पामतो नथी.
–भेदविज्ञानसार