Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७५ : आत्मधर्म : १७५ :
• एकेक समयना परिणमने ज्ञान क्यारे जाणी शके? •
वीर सं. २४७४ भादरवा सुद १४ – अनंतचतुर्दशीना दिवसे
ज् रुश्र श्र प्र क्ष् न्
(१) आत्मा ज्ञान स्वरूपी वस्तु छे, तेनी एकेक समयनी अवस्था छे. ते एक समयनी अवस्थामां
आत्मा परनुं कांई ग्रहण के त्याग करी शकतो नथी.
आत्माना ज्ञानमां बधाने एक समयमां जाणवानी शक्ति छे; आत्मा ते शक्तिनो एक समयमां विश्वास
करी शके अने एक समयमां बधुं जाणे तेवुं ज्ञानसामर्थ्य प्रगट करी शके. अथवा पोताना ज्ञान सामर्थ्यनो
अविश्वास करीने पर्यायमां एकेक समयनो विकार करे, पण एक साथे बे समयनो विकार करी शके नहि; पोतानी
अवस्थामां एकेक समयनो जे विकार थाय छे तेनेय पकडी शकतो नथी, तो पर वस्तुने क्यांथी पकडी शके?
एकेक समयनो नवो नवो विकार करतां अनादिथी अत्यार सुधी विकार थयो, ते विकार मारुं स्वरूप नथी, हुं
सदाय ज्ञान स्वरूप ज छुं–एम पोताना स्वरूप तरफ एकाग्र थईने पूरुं ज्ञान थतां पोताना अनादि–सांत
विकारनुं ज्ञान एक समयमां करी शके; पण बे समयनो विकार भेगो थाय नहि. जेणे पोताना ज्ञानस्वरूपनो
निर्णय कर्यो तेने तो विकारनो अंत आवी जाय छे तेथी तेने विकार अनादि अनंत नथी पण अनादि–सांत छे.
अभव्य वगेरे जीवने अनादि अनंत विकार छे, ते पण एकेक समय बदली बदलीने ज थाय छे. कोई जीव
पोताना आत्मामां बे समयनो विकार भेगो न करी शके, पण पोताना ज्ञानस्वरूपनी एकाग्रतावडे पोताना
अनादि–सांत विकारनुं अने अभव्य वगेरे पर जीवना अनादि अनंत विकारनुं एक समयमां ज्ञान करी शके छे.
(र) द्रव्य एकेक समयमां परिणमे छे. ते एकेक समयना परिणामने छद्मस्थ ज्ञान जाणी न शके पण
तेनी प्रतीत एक समयमां करी शके. बस, एकेक समयमां परिणमतुं द्रव्य जे ज्ञाननी प्रतीतमां आव्युं ते ज्ञान
‘एकेक समयमां विकार रहित स्वभाव छे’ तेने जाणे छे. स्वभावमां ज्ञाननी पूर्णता छे. तेनी प्रतीत करीने तेमां
ज्ञान ठरे तो ते ज्ञानमां एकेक समयमां बधुंय जणाया वगर रहे नहि. परंतु ज्ञानमां परनुं किंचित् ग्रहण के
त्याग नथी. आवा ज्ञानस्वभावने ओळखवो ते धर्म छे.
(३) आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; तेमां ज्ञान, श्रद्धा, सुख वगेरे अनंत गुणो छे. ते ज्ञानस्वभाव आत्मा
कोई पर वस्तुने ग्रहतो के छोडतो नथी.
आत्मानो ज्ञानगुण त्रिकाळ छे, तेनी वर्तमान दशा जाणवानुं काम करे छे. पदार्थोमां एकेक समयनी जे
वर्तमान अवस्था छे तेने छद्मस्थ जीव पोताना ज्ञानमां पकडी शकतो नथी. ज्ञानना उपयोगनुं कार्य रागवाळुं होवाथी
पर वस्तुनी वर्तमान हालतने पण ते ग्रही (जाणी) शकतो नथी; लाकडुं वगेरे जे कांई जणाय छे ते (असंख्य
समयनुं एवुं ने एवुं स्थूळपरिणमन जणाय छे, तेनुं एकेक समयनुं सूक्ष्मपरिणमन जणातुं नथी. पर वस्तुनी एक
समयनी अवस्थाने आत्मा स्थूळ उपयोगवडे जाणी पण शकतो नथी, तो पछी तेने ग्रहे के छोडे क्यांथी?
आत्मा पोते ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, सुख वगेरे अनंत गुणोनो पिंड छे, अने ते दरेक गुणनी एकेक समयनी
अवस्था छे; तेमां ज्ञानदर्शननी अवस्था
जे द्रव्य छे पर तेहने न ग्रही, न छोडी शकाय छे,
एवो ज तेनो गुण को प्रायोगी ने वैस्रसिक छे. ४०६.
जे परद्रव्य छे ते ग्रही शकातुं नथी तथा छोडी शकातुं नथी एवो ज कोई
तेनो (–आत्मानो) प्रायोगिक तेम ज वैस्रसिक गुण छे.
टीका :– ज्ञान परद्रव्यने कांई पण (जरा पण) ग्रहतुं नथी तथा छोडतुं
नथी. कारण के प्रोयोगिक (अर्थात् पर निमित्तथी थयेला) गुणना सामर्थ्यथी
ज्ञान वडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक्य छे.
–श्री समयसार पृष्ठ : ४७५