जाय छे त्यां उपयोग एकदम सूक्ष्म थईने स्वभाव तरफ वळे छे ने स्वभावना लक्षे द्रव्य–पर्यायनी एकता थतां
ज्ञानना उपयोगनी एवी निर्मळता थाय छे के एकेक समयमां स्वने परिपूर्ण जाणे छे, ने स्वने जाणतां परना
पण एकेक समयने ते ज्ञान जाणे छे. परंतु ते ज्ञान कोई पर वस्तुने पकडे के छोडे एम बनतुं नथी.
सुधी श्रद्धा वगेरे पण अधूरा छे, तेथी तेने परमावगाढ श्रद्धा कहेवाती नथी. आ सूक्ष्म वात छे.
ज्ञानीओए द्रव्य–पर्यायनी एकता प्रगट करीने आखा आत्मद्रव्यने श्रद्धा ज्ञानमां तेमनुं ज्ञान पकडयुं छे, परंतु
हजी तेमनुं ज्ञान एक समयने पकडी शकतुं नथी. ते ज्ञानी जीव पण पर वस्तुने तो त्रणकाळमां ग्रहण करी
शकता नथी, अने (३) केवळीभगवानने आत्मस्वभावमां पूर्ण एकतावडे केवळज्ञान प्रगट्युं छे, ने तेओ
एकेक समयमां बधुं जाणे छे, एक समयने पण जाणे छे, परंतु तेमने य कोई परनुं ग्रहण तो त्रणकाळमां नथी.
ए रीते वस्तुनो स्वभाव परना ग्रहण त्याग रहित छे, अज्ञानी विकार करीने के ज्ञानी पोताना ज्ञानस्वभावमां
रहीने पण परनुं ग्रहण के त्याग करी शकता नथी.
एकता करीने तेनी सामान्य रीते प्रतीत थाय. जो तद्न एक समयनी रुचिने ज्ञान पकडे तो ते ज्ञान सर्वथा
रागरहित, एक समयना उपयोगवाळुं होय. एकेक समयने जाणे तेवुंं ज्ञान क्यारे प्रगटे? जो एकेक समयनी
सामे ज लक्ष करे तो ते राग थाय अने रागवाळुं ज्ञान एकेक समयने पकडी न शके माटे एकेक समयना भेदनुं
लक्ष छोडीने संपूर्णद्रव्यमां उपयोगनी अखंडता थया वगर ज्ञानमां एक समय जणाय तेवुं सामर्थ्य प्रगटे नहि.
आथी एम नक्की थयुं के एकेक समयनुं ज्ञान प्रगट करवा माटे पण आत्मस्वभावमां ज उपयोगनी अखंडता
जोईए. आ रीते पोताना स्वभाव सन्मुख ढळवानी ज आमां वात छे.
तेनी कोई अवस्था ज्ञानमां प्रवेशी गई? एम तो बनतुं नथी. वळी, वस्तुमां तेना त्रण काळनी अवस्थाओ तो
वर्तमान प्रगट वर्तती नथी, मात्र एक ज समयनी प्रगट अवस्था वर्ते छे, ते एकेक समयनी वर्तमान वर्तती
अवस्थाने तो तारुं ज्ञान जाणतुं पण नथी. तेम ज ते तरफनो राग पण एकेक समये बदले छे ने ज्ञान पण
एकेक समये बदले छे, तेने पण तुं जाणी शकतो नथी. तारा वर्तमान ज्ञानने, रागने के वर्तमान परने जाण्या
वगर परने ग्रहवानुं माने छे ते मिथ्यात्व छे. हजी वस्तुना एक समयने पण तारुं ज्ञान पकडी शकतुं नथी तो ते
त्रिकाळी वस्तुने तें कई रीते पकडी? मात्र अज्ञानभावथी ज परनुं ग्रहण–त्याग मान्युं छे. परना ग्रहण–
त्यागनी मान्यता छोडीने ज्ञान पोताना स्वभावमां एकाग्र थाय त्यारे ज्ञानमां स्वद्रव्यने लीधुं एटले के
आत्मानुं ग्रहण कर्युं, ते ज्ञानमां परद्रव्य पण जणाय छे. पण ज्ञान पोताना स्वभावमां वळ्या वगर पर द्रव्यने
यथार्थ जाणे तेवुं सामर्थ्य तेनामां प्रगटतुं नथी. अने परद्रव्यने जरा पण ग्रहे एवुं सामर्थ्य तो त्रणकाळमां कोई
जीवमां नथी.
रागने कदी ग्रहण कर्यो नथी ने रागने कदी छोडतो पण नथी, रागनुं पोतामां ग्रहण कर्युं होय तो छोडेने? ज्ञान
पोताना स्वभावमां एकाग्र थतां ते रागने छोडतुं नथी. अहीं द्रव्यद्रष्टि बतावीने पर्यायद्रष्टि ज काढी नांखी छे.
परिपूर्ण स्वभावनी श्रद्धा करीने ज्ञान तेमां एकाग्र थयुं त्यां राग एनी मेळे छूटी जाय छे; ज्ञान स्वभावमां