: भाद्रपद : २४७५ : आत्मधर्म : १९५ :
अवस्थाने शरीरना द्रव्य–गुण–अवस्थाथी भिन्न स्वतंत्र कबूल करे, तो आत्मानो धर्म समजी शके, नहिंतर
आत्मानो धर्म समजी शके नहि. माटे धर्म समजवाना जिज्ञासुओए जीव अजीवादि नव पदार्थनुं स्वरूप प्रथम
यथार्थ समजवुं ज जोईए; तेमां प्रथमना जीव अने अजीव एवा बे पदार्थ सिद्ध कराय छे.
जेम जाणनार एवो जीव पदार्थ छे, तेम जगतमां नहि जाणनार एवा अजीव पदार्थो पण छे. तेमां तेना
गुणो–शक्तिओ पण छे. स्पर्श, रस, गंध अने वर्ण वगेरे जडना गुणो छे. अहीं, चैतन्य स्वभाव ते आत्मा छे,
अने स्पर्शादि स्वभाववाळा ते जड छे. जडमां अहीं पुद्गलनी ज वात कहेवी छे. धर्मास्ति, अधर्मास्ति–आदि
बीजां चार द्रव्यो छे, तेनी वात नथी.
वळी जेम आत्मामां क्षणे क्षणे जुदा जुदा भाव थाय छे–आत्मद्रव्यमां अवस्थाओ बदले छे तेम क्षणे
क्षणे जड पदार्थ पण बदले छे. जो जड पदार्थ शरीर, वाणी, धन, मकान वगेरे बदलता न होय तो आत्मामां
थता जुदा जुदा भावो ठीक–अठीकना भावोनुं निमित्त रहेतुं नथी. ठीक–अठीकरूपी विकारी भावोमां, जडनां
द्रव्य–गुणो त्रिकाळी होवाथी निमित्त न थाय. विकार वर्तमान होवाथी जडनुं वर्तमान एटले के जडनी वर्तमान
पलटती दशा ठीक–अठीकनुं निमित्त थाय. माटे आत्मानी पेठे जड पण बदले छे एम स्वीकारवुं जोईए. जडनुं
परिणमन स्वीकारवामां न आवे तो ज्ञाननुं ज्ञेय तेमज भूलनुं निमित्त पण सिद्ध न थाय; एम थतां भूल पण
सिद्ध न थाय, अने जो भूल ज सिद्ध न थाय, तो पछी टाळे कोने?
हुं शुद्ध छुं एम निर्णय कर्यो त्यां, मारामां अशुद्ध दशा हती, तेना निमित्तो हतां, ठीक–अठीक भावो हता
अने तेनां निमित्तो पण हतां; जेम मारा ठीक–अठीक भावो बदलतां तेम सामे निमित्तो पण बदलतां. जो
निमित्तोमां पलटो थतो न होय तो आ ठीक छे, आ अठीक छे, पूर्वे निरोगीपणाने लीधे आ स्त्री ठीक हती,
वर्तमान रोगीपणाने लीधे ते ठीक नथी, एवी कल्पना थाय नहि. माटे सामा जड पदार्थो पण बदले छे. ए रीते
जीव अने अजीव एम बे जातना द्रव्यो वस्तुपणे अनादि–अनंत छे. अने तेमनामां क्षणे क्षणे हालतो बदलाय
छे, तेथी ते बंन्नेनुं नित्यपणुं अने परिणामीपणुं बन्ने सिद्ध थाय छे.
हुं जाणनार–देखनार पदार्थ छुं. आनंद मारो स्वभाव छे. मारे तेनो आनंद लेवो छे. संसारमां अज्ञानी
जीव पण स्त्रीनो के रोटलानो स्वाद लेतो नथी, परंतु मने तेमां सुख छे एवी मिथ्या मान्यतारूप आकुळतानो
स्वाद ले छे. अज्ञानी जीव पण लाडवा, पेंडा वगेरे खातो नथी, मात्र आकुळताने भोगवे भोगवे छे. जेने
आत्माना आनंदने भोगववो होय, –आत्माना आनंदनो अनुभव करवो होय, तेने माटे प्रथम आत्मानी साची
समजण करवानी आ वात छे.
दाळ, भात, वगेरे ठीक–अठीक पदार्थो पर छे. ते जो पलटतां न होय, –जड पदार्थमां कायम रहीने
बदलवानी ताकात न होय तो ते शुभ अशुभ विकारमां निमित्त थई शके नहीं. अने ठीक–अठीक आदि अनेक
प्रकारनी विकारी लागणीओमां अनेक प्रकारना जुदां जुदां जड पदार्थनी अवस्थारूप निमित्तो तो जोवामां आवे
छे, माटे, काळी–धोळी, कडवी–मीठी वगेरे जुदी जुदी अवस्थारूपे बदलवानो जडनो स्वभाव छे, एम
अजीवतत्त्वने जाणवुं.
मारे आत्मानुं सुख–शांति जोईए छे, आकुळता नथी जोईती, तेमां जीव, अजीव तथा विकारी अने
अविकारी अवस्थाओ–ए बधानी सिद्धि थाय छे, अने तेमां नवे तत्त्वोनो समावेश थई जाय छे. तेमांथी जीव
अने अजीव एम बे पदार्थो सिद्ध थया.
हुं ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा छुं. स्वभावथी शुद्ध छुं, मारुं सुख अंतर चैतन्य स्वभावमां छे. तेने व्यक्त
करीने हुं सुखी थवा मागुं छुं. ए रीते आत्माने अने तेना त्रिकाळी स्वभावने न जाणे तो ते सुख प्रगट करी
शके नहि. वळी त्रिकाळी स्वभाव शुद्ध होवा छतां, वर्तमान अवस्थामां परने पोतानुं मानीने मलिनता करे छे,
परमां सुख माने छे. त्यां, पर शरीरादि अजीव पदार्थ के जेना तरफ पोते लक्ष करीने मलिनता–अज्ञान, राग
अने द्वेष करे छे ते पण सिद्ध थाय छे. वर्तमान अवस्थामां अशुद्धता दुःख अने तेना निमित्तो छे तेने जो न
जाणे तो पण दुःख टाळीने सुख प्रगट करवानो प्रयत्न करे नहि.
(८) भम
केटलाक जीवोनो अभिप्राय छे के “जगतमां सर्वव्यापी एक ब्रह्म छे. अने आ जे बीजुं द्रश्य देखाय छे ते
बधुं भ्रम छे; वास्तविक ते कोई पदार्थ नथी; जेम दोरडीमां सर्पनो भ्रम थाय छे तेम आ बधुं भ्रम छे.” खरेखर
तेमनो ते अभिप्राय जुठ्ठो छे,