Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १९४ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७५ :
नथी. जगतमां बीजा जड पदार्थो छे के जेमनामां जाणवा–देखवानो स्वभाव नथी, तेमनाथी जीवने पोताना
खास गुणोथी जुदो पाडी शकाय छे. तेथी जेमनामां एवा गुणो नथी एवा जड पदार्थो पण जगतमां छे.
(५) नवतत्त्व
वळी, अनादिथी ‘जीव’नुं लक्ष पोताना स्वभावथी विरुद्ध एवा शरीरादि ‘जड’ पदार्थमां होवाथी तेने
भूल अने विकार छे. ते विकार आत्माना विकृतस्वभावनी अपेक्षाए एक प्रकारनो होवा छतां, मंद अने तीव्र
एवा विकारना बे पडखां पडे छे. तेने ‘पुण्य’ अने ‘पाप’ कहे छे, बेय पडखांने अभेद करीने एक प्रकारथी
कहेवो होय तो तेने ‘आस्रव’ कहेवाय छे. जीव ते विकारमां अटके छे, विकार टके छे तेथी तेने ‘बंध’ कहेवाय छे,
ते भूल अने राग–द्वेषरूप विकार अटकवो एटले आत्मानुं यथार्थ भान करी स्वरूपमां टकवुं ते ‘संवर’ छे.
विकारनुं एक देश घटवुं एटले के स्वभाव–शुद्धिनुं एक–देश वधवुं ते ‘निर्जरा’ छे. विकारनो अत्यंत क्षय थवो
अने स्वभावनुं सर्वथा ‘प्रगट’ थवुं ते ‘मोक्ष’ छे. विकारथी सर्वथा छूटकारो आत्मामां मुक्तदशा प्रगट थतां
थाय छे. जेने भूल अने विकार टाळवा छे तेणे आत्मानी साची समजण करीने मुक्तदशा प्रगट करवी जोईए.
जेने मुक्तदशा एटले के आत्मानो संपूर्ण शुद्ध अनुभव करवो छे, तेणे प्रथम जीव–अजीवादि नव तत्त्वो बराबर
समजीने आत्मानो यथार्थ निर्णय करवो जोईए. ए रीते जीव, अजीव उपरांत पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर,
निर्जरा अने मोक्ष एम कुल नव तत्त्वो सिद्ध थाय छे. ए रीते नव पदार्थो सिद्ध न थाय तो आत्माने विकार
टाळीने सुखी थवानो –मुक्त दशा प्रगट करवानो–ध्वनि उत्पन्न थतो नथी.
(६) धर्म, अधर्म अने तेनुं फळ
आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव तो शुद्ध छे, उपाधि विनानो, आकुळता रहित छे. परंतु वर्तमान दशामां
सुख, शांति के धर्मरूप थवुं छे; जो ते सुख–शांति वर्तमान पर्यायमां प्रगट होय तो तेने प्रगट करवानुं रहेतुं नथी.
धर्मनुं स्वरूप एवुं छे के जे वर्तमानमां ज सुख अने शांति आपे; अधर्म पण वर्तमानमां ज दुःख अने अशांति
आपे छे धर्म करे अत्यारे अने तेनुं फळ भविष्यमां आवे एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी; अधर्म करे वर्तमान–अने तेनुं
फळ भविष्यमां नरकमां जाय त्यारे आवे एम नथी. धर्म–अधर्मनुं फळ वर्तमान ज अनाकुळता–शांति के
आकुळता–अशांतिरूप छे.
ज्यारे जीव एम कहे छे के “मारे धर्म करवो छे–सुखी थवुं छे”. त्यारे ते पोताने परथी जुदो पाडे छे के हुं
ए जाणनार–देखनार स्वभाववाळो पदार्थ छुं. तेथी सिद्ध थाय छे के तेनाथी विरुद्ध स्वभाववाळा जड पदार्थ पण
जगतमां विद्यमान छे. एटले के चैतन्य गुणथी विपरीत गुणवाळा अचेतन पदार्थो जगतमां छे. जेम ‘आत्मा
जाणनार छे’ –एम जणावायोग्य छे, तेम नहि जाणनारां एवां शरीर, वाणी, कर्म वगेरे अजीवतत्त्वो छे, ते पण
जणावायोग्य छे. ए रीते जीव अने अजीव एम बे तत्त्वने जे न स्वीकारे तेने शरीरादि अजीव पदार्थोथी भिन्न
एवा आ आत्मानुं भेदज्ञान करवानुं रहेतुं नथी, –आत्माने परथी जुदो पाडवानी वात रहेती नथी.
हुं शुद्ध, ज्ञायक मात्र आत्मा छुं. मारे मारी अवस्थामां व्यक्त परमानंद प्रगट करवो छे’ –आम ध्वनि
ऊठतां ज नव पदार्थो सिद्ध थई जाय छे, ते अहीं बताववुं छे.
(७) जीव – अजीव अने तेना गुण पर्याय
आत्मानो स्वभाव जाणवुं, देखवुं, शांति, सुख वगेरे छे, ते जाणवा–देखवापणुं पोताना स्वभावमां ज
रोकाणुं होय तो तेने शांति–सुख के मुक्ति प्रगट करवानां रहे नहि; परंतु अज्ञानने लईने अनादिथी पोताने
नहि जाणतां, जडमां पोतानुं होवापणुं मानीने शरीरादि पर पदार्थना लक्षमां अटके छे. आत्मानो त्रिकाळी
द्रव्यस्वभाव, आत्माना गुणो अने आत्माना पर्यायोनुं वास्तविक स्वरूप नहि जाणतो होवाथी, अज्ञानी आत्मा
जड वस्तु, जडना गुणो अने जडनी दशाओ–एम जडना त्रण प्रकारो छे–तेमां पोतानुं होवापणुं माने छे. “हुं
जाणनार देखनार आत्मा छुं, जाणवापणे जणाउं तेटलो हुं छुं; शरीरादि जड पदार्थो, तेना गुणो अने तेनी
अवस्था माराथी पर छे, हुं तेमनाथी जुदो छुं; हुं तो कायम रहेनार पदार्थ छुं. ज्ञान, दर्शन, सुखादि अनंत
गुणोनो पिंड छुं, में मारी वर्तमान दशामां ‘जडमां सुख छे ईन्द्रियोमां सुख छे’ एम अज्ञानने लीधे मान्युं हतुं,
ते अज्ञानदशा पलटी शके छे, के हुं ते शरीरादि जड पदार्थ नथी, तथा राग–द्वेषादि विकारी भाव मारुं स्वरूप
नथी; तेमां मारुं सुख नथी, मारुं सुख मारामां छें’ –एम जो आत्मवस्तु, तेना गुणो अने तेनी