खास गुणोथी जुदो पाडी शकाय छे. तेथी जेमनामां एवा गुणो नथी एवा जड पदार्थो पण जगतमां छे.
एवा विकारना बे पडखां पडे छे. तेने ‘पुण्य’ अने ‘पाप’ कहे छे, बेय पडखांने अभेद करीने एक प्रकारथी
कहेवो होय तो तेने ‘आस्रव’ कहेवाय छे. जीव ते विकारमां अटके छे, विकार टके छे तेथी तेने ‘बंध’ कहेवाय छे,
ते भूल अने राग–द्वेषरूप विकार अटकवो एटले आत्मानुं यथार्थ भान करी स्वरूपमां टकवुं ते ‘संवर’ छे.
विकारनुं एक देश घटवुं एटले के स्वभाव–शुद्धिनुं एक–देश वधवुं ते ‘निर्जरा’ छे. विकारनो अत्यंत क्षय थवो
थाय छे. जेने भूल अने विकार टाळवा छे तेणे आत्मानी साची समजण करीने मुक्तदशा प्रगट करवी जोईए.
जेने मुक्तदशा एटले के आत्मानो संपूर्ण शुद्ध अनुभव करवो छे, तेणे प्रथम जीव–अजीवादि नव तत्त्वो बराबर
समजीने आत्मानो यथार्थ निर्णय करवो जोईए. ए रीते जीव, अजीव उपरांत पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर,
निर्जरा अने मोक्ष एम कुल नव तत्त्वो सिद्ध थाय छे. ए रीते नव पदार्थो सिद्ध न थाय तो आत्माने विकार
टाळीने सुखी थवानो –मुक्त दशा प्रगट करवानो–ध्वनि उत्पन्न थतो नथी.
धर्मनुं स्वरूप एवुं छे के जे वर्तमानमां ज सुख अने शांति आपे; अधर्म पण वर्तमानमां ज दुःख अने अशांति
आपे छे धर्म करे अत्यारे अने तेनुं फळ भविष्यमां आवे एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी; अधर्म करे वर्तमान–अने तेनुं
फळ भविष्यमां नरकमां जाय त्यारे आवे एम नथी. धर्म–अधर्मनुं फळ वर्तमान ज अनाकुळता–शांति के
आकुळता–अशांतिरूप छे.
जगतमां विद्यमान छे. एटले के चैतन्य गुणथी विपरीत गुणवाळा अचेतन पदार्थो जगतमां छे. जेम ‘आत्मा
जाणनार छे’ –एम जणावायोग्य छे, तेम नहि जाणनारां एवां शरीर, वाणी, कर्म वगेरे अजीवतत्त्वो छे, ते पण
जणावायोग्य छे. ए रीते जीव अने अजीव एम बे तत्त्वने जे न स्वीकारे तेने शरीरादि अजीव पदार्थोथी भिन्न
एवा आ आत्मानुं भेदज्ञान करवानुं रहेतुं नथी, –आत्माने परथी जुदो पाडवानी वात रहेती नथी.
नहि जाणतां, जडमां पोतानुं होवापणुं मानीने शरीरादि पर पदार्थना लक्षमां अटके छे. आत्मानो त्रिकाळी
द्रव्यस्वभाव, आत्माना गुणो अने आत्माना पर्यायोनुं वास्तविक स्वरूप नहि जाणतो होवाथी, अज्ञानी आत्मा
जड वस्तु, जडना गुणो अने जडनी दशाओ–एम जडना त्रण प्रकारो छे–तेमां पोतानुं होवापणुं माने छे. “हुं
अवस्था माराथी पर छे, हुं तेमनाथी जुदो छुं; हुं तो कायम रहेनार पदार्थ छुं. ज्ञान, दर्शन, सुखादि अनंत
गुणोनो पिंड छुं, में मारी वर्तमान दशामां ‘जडमां सुख छे ईन्द्रियोमां सुख छे’ एम अज्ञानने लीधे मान्युं हतुं,
ते अज्ञानदशा पलटी शके छे, के हुं ते शरीरादि जड पदार्थ नथी, तथा राग–द्वेषादि विकारी भाव मारुं स्वरूप
नथी; तेमां मारुं सुख नथी, मारुं सुख मारामां छें’ –एम जो आत्मवस्तु, तेना गुणो अने तेनी