: १९६ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७५ :
केम के दोरडीमां सर्पनो भ्रम थाय छे, तो सर्पनी अन्यत्र हयाती छे के नहिं? जो सर्पनी जगतमां अन्यत्र क्यांय
हयाती ज न होय तो सर्वथा असत् पदार्थनी दोरडीमां कल्पना केम थाय? न ज थाय. दोरडीने ज सर्प मानवो
ते भ्रम छे, केमके दोरडीमां सर्पनो अभाव छे. परंतु सर्पमां सर्पनो अभाव नथी, जगतमां तो सर्पनी हयाती छे.
ए प्रमाणे आत्मामां शरीरादि अजीव पदार्थोनो अभाव छे, परंतु जगतमां तेमनो अभाव नथी. अजीव
पदार्थनी पोतानी पोतामां हयाती तो छे ज, तेओ सर्वथा भ्रम एटले के असत् नथी पण ते अजीवने पोतानुं
मानवुं ते भ्रम छे. जेम जगतमां भिन्न भिन्न अनेक आत्मा छे तेम भिन्न भिन्न अजीव पदार्थो पण छे.
जगतमां दोरडी पण छे, सर्प पण छे अने दोरडीमां सर्प मानवारूप भ्रांति पण छे. एम आ विश्वमां
अनंत जीव पदार्थो छे; भ्रांतिमां निमित्त अजीव पदार्थो छे, अने भ्रांतिरूप जीवनी विकारी दशा पण छे, एम
जीव, अजीव अने जीवनी भूल ए त्रण सिद्ध थाय छे.
(९) जीव – अजीवन अक अन अक्षर
जेम अंक अने अक्षरना ज्ञान विनानोमाणस नामुं लखी न जाणे, तेम आत्माना अंक अने अक्षर
जाण्या विना तेने ओळखी न शकाय. अहीं, ‘अंक’ एटले आत्मानुं चिह्न–लक्षण अथवा एंधाण छे. आत्मानुं
चिह्न लक्षण–एंधाण शुं? एनुं ज्यां सुधी ज्ञान न करे त्यांसुधी तेने धर्मनी शरूआत थाय नहि. ज्ञान, दर्शन ते
आत्मानुं एंधाण छे. जाणवुं देखवुं ते आत्माने जणावनारुं लक्षण छे.
‘अक्षर’ जेनो नाश न थाय ते अक्षर छे. जीव अने जड बंने अक्षर अविनाशी छे. जीव अने जडनां
चिह्न तथा तेमनो अविनाशी स्वभाव जाण्या विना आत्मा अने परने समजी शकाय नहि आत्मानुं लक्षण तथा
जडनुं लक्षण शुं छे? ते जाण्या विना आत्माने जडथी जुदो जाणी शकाय नहि, अने जो आत्माने जडथी जुदो न
जाणे तो तेने सम्यग्दर्शन एटले के धर्मनुं प्रथम पगथियुं पण थाय नहि.
जड पदार्थ के जे शरीरादि अनेकरूपे छे, तेनुं लक्षण स्पर्श–रस–गंध, वर्ण वगेरे छे. ते एंधाण वडे ते जड
छे अचेतन छे एम ओळखी शकाय छे. अने चैतन्य लक्षणवडे जीवने ओळखाय छे.
भगवान आचार्यदेव जगतना जीवोने संबोधीने कहे छे के: हे जीवो! अनंत काळथी पोतानो आत्मा
वास्तविक शुं चीज छे, अने तेना होवापणानुं शुं स्वरूप छे, ते तमे कदी जाण्युं नथी; जो ते जाण्युं होय तो विकार
अने दुःख रहे नहि. विकार अने दुःख तो वर्तमान दशामां छे. तो तेनुं निमित्त जड पदार्थ छे. स्पर्श, रस वगेरे
तेनुं लक्षण छे. स्पर्शादि वडे जडने अने ज्ञानादि वडे आत्माने–ए रीते बंन्नेने जुदा पाडीने न जाणे तो धर्म थाय
नहि. माटे धर्म करवाना जिज्ञासु जीवे प्रथम ज आत्मा अने जड पदार्थने यथार्थ रीते जुदां जुदां समजवां.
समजण एटले के धर्म परथी न थाय, कारण के भूलनो करनार पण पोते छे अने भूलने भांगीने धर्मनो
करनार पण पोते छे.
(१०) जीवमां विकार अने तेनुं निमित्त
भूल थाय आत्मानी दशामां. परंतु जो पर पदार्थ निमित्त न होय तो कोना लक्षे भूल थाय? पर लक्ष
विना एकला स्वभावना लक्षे भूल थाय नहि. जो एकला पोताथी ज भूल थाय तो भूल स्वभाव थई जाय,
पण तेम छे नहि.
जेम आत्मा कायमी टकतो पदार्थ छे, तेम भूलमां निमित्त अजीव द्रव्य कायमी टकतुं छे. जेम जीव भूल
बीजी क्षणे लंबाव्या करे छे, तेम तेनुं निमित्त पण क्षणे क्षणे पोतानी अवस्था बदलीने टकनारुं छे. जो सामुं
अजीव द्रव्य बदलातुं न होय तो आत्माने कायम भूल थती ज आवे; माटे अजीव निमित्त पण एक अवस्थारूपे
न रहेतां कायम टकीने बदले छे. जीव तेवुं लक्ष छोडीने स्वभावमां वळे त्यारे तेने अजीवनुं निमित्त रहेतुं नथी,
एटले के सामुं निमित्त पण कायम टकीने बीजी दशारूपे बदली जाय छे. अने जीव पण कायम टकीने बदली जाय
छे. ए रीते सामुं अजीव द्रव्य पण कायम टकतो पदार्थ सिद्ध थाय छे.
ए रीते न्यायथी समजवा मागे तेने बराबर समजाय के आत्मा अने जड एम बे जातना पदार्थो छे,
तेमनां भिन्न भिन्न लक्षणो छे. बंनेमां नित्यता छे. जीवमां मोह–राग–द्वेष विकार पलटे छे; अने विकारनुं
निमित्त कर्म–अजीव पदार्थ छे ते पण पलटे छे. जो अजीव पदार्थ कायमी न होय तो तेनुं पलटन पण होय नहि;
पलटन न होय तो तेने विकारमां निमित्तपणुं पण होय नहि; विकारनुं निमित्त न होय तो विकार पण होय