: भाद्रपद : २४७५ : आत्मधर्म : १९७ :
नहि. कारण के विकार केवळ जीव स्वभावथी थतो नथी, पण पर–अजीवने लक्षे थाय छे. माटे सामो अजीव
पदार्थ पण कायमी छे, अने तेनी जुदी जुदी अवस्था दरेक समये थया करे छे.
आत्मा त्रिकाळी हयाती धरावनार पदार्थ छे. तेनुं लक्षण जाणवापणुं–देखवापणुं छे. जडथी जुदुं तेनामां
एंधाण होय तो ते जडथी जुदो पाडी शकाय; अने ते अवस्थामां पलटतो होय तो पलटीने सुखी थाय अने दुःख
टाळे. ए रीते आत्मद्रव्य, तेना ज्ञानादि गुणो अने तेनी समये समये पलटती अवस्था, ए त्रणेनो पिंड ते
आत्मा छे. ते प्रमाणे जड द्रव्य, तेना स्पर्शादि गुणो अने तेनी पलटती अवस्था ए त्रणेनो पिंड ते अजीव–जड
छे ए रीते जीव अने अजीव बे तत्त्वो सिद्ध थयां.
(१) पूर्ण सुखनी प्राप्तिनो उपाय
वळी, जीवद्रव्यमां समये समये अवस्था बदलाय छे. ते अवस्था मलिन अने निर्मळ एम बे प्रकारनी
होय छे. अज्ञान अने रागद्वेषादिने लईने मलिन होय छे, अने अज्ञान रागद्वेषादि टळतां निर्मळ होय छे. ते
प्रमाणे जीव द्रव्यमां मलिन अने निर्मळ दशास्वरूप बे प्रकार न मानवामां आवे तो तेने अज्ञान–रागद्वेष एटले
के दुःख टाळवुं अने ज्ञान–वीतरागता एटले के सुख प्राप्त करवुं एवुं कांई रहेतुं नथी. माटे जीवमां मलिन–
दुःखरूप अवस्था छे, अने ते दुःखरूप अवस्था टाळीने निर्मळ–सुखरूप अवस्था तेने प्रगट करवानी छे. जीव,
तेनी पुण्य–पाप–आश्रव बंधरूप विकारी अवस्था, विकारनुं निमित्त अजीव, विकार रहित साधक अवस्था–
निर्मळ दशा–संवर, निर्जरा अने पूर्ण निर्मळ दशा–मोक्ष, ए नवतत्त्वनुं वास्तविक स्वरूप जेम छे तेम समजीने,
नव भेदना विकल्प रहित पोताना शुद्ध आत्माने यथार्थ ओळखवो ते सुख प्रगट करवानो साचो उपाय छे.
अने ए रीते आत्माने ओळखीने आत्मामां वारंवार स्थिरतानो अभ्यास करीने संपूर्ण राग–द्वेषने टाळवा ते
पूर्ण सुख प्राप्त करवानो उपाय छे.
जीव विकारदशामां पर–अजीवनां लक्षे सुखदुःखनी कल्पना करे छे. तेथी तेने एक समयनी विकारी
मलिन अवस्था छे. जो एक समयनी मलिन अवस्था जीवमां मानवामां न आवे तो ते मलिन अवस्थानो नाश
करुं अने निर्मळ अवस्था प्रगट करुं एटले के शरीर वगेरे अजीव पदार्थोनुं लक्ष छोडीने त्रिकाळी आत्मस्वभाव
तरफ वळुं एवा भावनी हयाती रहेती नथी.
(१२) पपतत्त्व
जीव अने अजीव, बे पदार्थो सिद्ध थया, जीवनुं लक्ष पर अजीव तरफ हतुं त्यां हिंसा, जुठुं, चोरी मैथुन
अने परिग्रहादिना पाप भाव क्षणिक थता हता. जो ते पाप भाव न स्वीकारवामां आवे तो ते हिंसादि पाप
भाव टाळी हुं धर्म करुं, एवो भाव तेने न थाय; परंतु जीवने हिंसादि पापभाव छोडवानो भाव थाय छे माटे
पाप तत्त्वनी हयाती सिद्ध थाय छे.
हिंसा, जूठ वगेरे भावो जीवमां थाय छे ते कांईक छे के नहि? ते पापरूप भाव आत्मानी विकारी पर्याय
छे. पाप परमां थतुं नथी, आत्मानी क्षणिक दशामां थाय छे. जो आत्मानी क्षणिक दशमां पाप तत्त्वनी हयातीनी
कबूलात करे तो ‘मारे पाप करवुं नथी’ एवो ध्वनि नीकळे, परंतु जो वर्तमान क्षणिक अवस्थामां पाप तत्त्वने
स्वीकारवामां न आवे तो ‘मारे पाप करवुं नथी’ एवो ध्वनि पण होय नहि. माटे पापतत्त्व छे.
स्वभावने चूकीने जीवने स्त्री, पुत्र, मकानादि उपर लक्ष जाय छे, ते संबंधी राग–द्वेष थाय छे ते भावने
एटले के पापने कबूले नहि तो तेने धर्म करवानो प्रसंग रहेतो नथी.
(१३) मिलन तत्त्वो अने िनमर्ळ तत्त्वो
पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष, ए सात तत्त्वो त्रिकाळी पदार्थ नथी, परंतु त्रिकाळी
जीव पदार्थनी क्षणिक अवस्थाओ छे. तेमां पुण्य, पाप, आस्रव अने बंध मलिन भावो छे, संवर–निर्जरा अपूर्ण
निर्मळ भाव छे; अने मोक्ष परिपूर्ण निर्मळ भाव छे. मोक्ष थया पछी जीव अनंत काळ, सदाय परिपूर्ण निर्मळ
ज रहे छे. पछी तेने कदी जरा पण मलिनता थती नथी. मलिन चार भावो कह्यां, तेने जो न मानवामां आवे
तो विकारथी रहित थईने स्वभावने–परिपूर्ण निर्मळ दशाने प्रगट करवानुं रहेतुं नथी, कारण के एक समयनी
अवस्थामां मलिनता माने तो स्वभावने ओळखीने मलिनताने टाळवानो उपाय करे, परंतु मलिनताने ज न
माने तो शेनो उपाय करे?
वळी, ते पाप भावनुं अस्तित्व जीवनी पोतानी दशामां छे. पाप शरीर–पुत्रादिमां रहेतुं नथी; पोतानी
वर्तमान दशामां थाय छे. पोतानी