Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १९८ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७५ :
क्षणिक दशामां पापनी हयाती न कबूले तो ‘आ विकार क्षणिक छे, मारो स्वभाव त्रिकाळी धु्रव छे, तेमां आ
क्षणिक विकार नथी’ एवी कबूलात न आवे, अने ते कबूलात विना ‘त्रिकाळी स्वभाव तरफ मारे ढळवुं’ एम
तेने रहेतुं नथी. माटे जीवनी क्षणिक दशामां पापभाव थाय छे, ए सिद्ध थाय छे.
जीव अने अजीव ए बे मूळ पदार्थो छे. पुण्य–पाप वगेरे पदार्थो अजीवनां सद्भावरूप निमित्ते के
अभावरूप निमित्ते थती जीवनी अवस्थाओ छे. तेमां पापरूप अवस्थाने सिद्ध करी.
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जीवमां दया, दान, पूजा, भक्ति के बीजा कोई निमित्ते कषायनी मंदताना भाव थाय छे. ते भाव पुण्य
छे, आत्मानी अवस्थामां थतो क्षणिक शुभ विकार छे. ते पर पदार्थना लक्षे थतो होवाथी आत्मानुं स्वरूप नथी.
ते आत्मानुं स्वरूप नथी माटे जीव पापनी जेम पुण्यनो पण अभाव करीने एकला आत्मस्वभावमां रहेवा
मागे छे. जो आत्मानी वर्तमान दशामां पुण्यरूप विकारी भावोने कबूल न करे तो ते पुण्यथी रहित आत्माना
शुद्ध स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान करी शके नहि.
वळी, जीवने पुण्य थाय छे, ते पैसाथी, के बीजा जीवना बचवाथी थतुं नथी; कारण के पैसो जड पदार्थ
छे. तेनुं आववुं जवुं आने आधिन नथी, तेथी खरेखर ते जड एवा पैसाने दई शकतो नथी. अने बीजो जीव
तेना आयुष्यना कारणे बचे छे. आ जीव तेने बचावी शकतो नथी. माटे पैसाथी अने बीजा जीवना बचवाथी
आने पुण्य थतुं नथी. परंतु पैसा प्रत्येनो राग घटाडवाथी अने पोताना अनुकंपाना भावथी तेने पुण्य थाय छे.
केटलाक लोको दया दानना भावने पाप कहे छे. ते वात साची नथी. जीवनो जे लोभ घटाडवानो भाव अने
प्राणी प्रत्ये अनुकंपानो भाव थाय छे ते पुण्य भाव छे. ते भाव पाप नथी तेम धर्म पण नथी; धर्म तो पुण्य
अने पापथी रहित तद्न जुदी ज चीज छे. ते तो आत्मानो अज्ञान, राग–द्वेष रहित स्वभाव छे. जेओ पुण्यने
पाप माने छे तेओने धर्म के धर्मनुं भान होई शके नहि. जेम हिंसा, जूठ वगेरे जीवनी अवस्थामां थता भावो
पाप छे तेम तेनी अवस्थामां थता दया–दान–तृष्णा घटाडवाना भाव ते पुण्य छे. दया–दानमां पाप माननारा
दलील करे छे के “आपणे बीजा जीवने बचावीए पछी ते जीव जेटलां पाप करशे तेनुं पाप आपणने लागशे;
गरीबने पैसा आपशुं अने जो ते खोटे रस्ते वापरशे तो तेनुं पाप आपणने लागशे.” तेनी ते वात तद्न खोटी
छे. पाप–पुण्य परथी लागे छे के पोताना परिणामथी थाय छे? पुण्य तो पोतानी तृष्णा घटाडवाथी थाय छे;
बीजो जीव शुं करशे पछीथी वधारे पाप करशे के केम? तेनी साथे आने कांई संबंध नथी.
लक्ष्मी उपरथी राग घटाडवानी वृत्ति थाय ते आत्मानी अवस्थामां थतो पुण्य भाव छे. पुण्यने न
स्वीकारे तो नव तत्त्व सिद्ध थता नथी–अरे! कोई पण एक तत्त्व न स्वीकारे तो कांई पण सिद्ध थतुं नथी.
जेम पाप तत्त्वने न माने तो हुं आ पापभाव टाळीने धर्म करुं, मारुं हित करुं एम रहेतुं नथी, तेम
आत्मामां थती शुभ लागणी, दयादिना शुभभाव के जे पुण्यतत्त्व छे तेने जेम छे तेम स्वीकारे नहि अने तेने ज
पाप कहे तो तेणे नवतत्त्वने जाण्या नथी. वळी पुण्य–पाप बेय भावो मलिन छे, ते आत्मानो स्वभाव नथी, ते
धर्म के धर्मनुं साधन नथी एम स्वीकार न करे तो हुं आ पुण्य–पापरूप मलिनभावोने टाळी स्वभावनां श्रद्धा–
ज्ञान करी शुद्धता प्रगट करुं तेम पण रहेतुं नथी.
पांजरापोळमां जीवोने बचाववाना भावने केटलाक पाप कहे छे, तेओ पापतत्त्व अने पुण्यतत्त्वनां जुदा
स्वरूपने समजता नथी. पुण्यने पाप माने के पापने पुण्य माने अथवा बेय मलिन छे तेने मलिन न माने,
पुण्यने धर्म अथवा धर्मनुं कारण माने तो ते वात पण साची नथी; तेणे पुण्य, पाप अने धर्मना स्वरूपने जुदां
जाण्यां नथी.
जेम आत्मा त्रिकाळी स्वभावनी अपेक्षाए शुभाशुभ विकाररहित शुद्ध छे तेम पर्यायथी पण आत्मा
वर्तमान संसारावस्थामां शुद्ध छे–एम माने तो तेने मलिनता टाळीने शुद्ध थवानो अवसर रहेतो नथी. आत्मा
वर्तमान पर्यायमां मलिन छे; तेनी पर्यायमां पुण्य–पापरूप मलिनता थाय छे. तेने न माने तो ‘ते मलिनता
रहित ज्ञाता–द्रष्टा मारो स्वभाव छे, तेनो आश्रय लईने हुं धर्म करुं,’ एम तेने रहेतुं नथी. पुण्य अने पाप
बेयने मलिन कह्या छे. बेयने मलिनतारूपे न स्वीकारे तो ‘ते बंने क्षणिक भावोनो अभाव करीने त्रिकाळी शुद्ध
स्वभाव तरफ वळवानुं रहेतुं नथी. पुण्य अने पापने–बंनेने जुदां न जाणे तो नव तत्त्वो रहेतां नथी,