Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७५ : आत्मधर्म : १९९ :
माटे पुण्य अने पाप बंने जुदां तत्त्वो छे. ए रीते पापनी जेम पुण्य पण तत्त्व छे एम साबित कर्युं.
(१५) अस्रव
पुण्य, पाप, आस्रव अने बंध ए चार मलिन तत्त्वोमां पुण्य अने पाप ए बे तत्त्वोनी वात थई. हवे
पुण्य–पाप बंनेने मलिनतानी अपेक्षाए एक करीने तेमने आस्रव कहे छे. पुण्य–पाप बंने विकार तरीके एकरूप
छे, ते आस्रव तत्त्व छे. पुण्य–पाप बंने मूळ चैतन्य स्वभावमां नथी, जीवे अवस्थामां नवां कृत्रिम ऊभां कर्यां
छे. माटे बेयनुं एक रूप आपीने तेने आस्रव तत्त्व कह्युं छे. ए रीते पुण्य–पाप आत्मानो स्वभाव नहि
होवाथी, अने क्षणिक परलक्षे नवां थतां होवाथी–नवां आवतां होवाथी एटले के कृत्रिम ऊभा थतां होवाथी
बेयने एक नाम आपीने आस्रव कह्यां छे. ए प्रमाणे आश्रव तत्त्व सिद्ध थयुं.
(१६) बधतत्त्व
ज्ञाता–द्रष्टा स्वभावी आत्मानी वर्तमान अवस्थामां जे शुभ–अशुभ भावो के मोह–राग–द्वेषरूप
भावोनुं थवुं, क्षणिक कृत्रिम विकारोनुं परलक्षे ऊभु थवुं ते आश्रव तत्त्व छे; अने ते मोह–राग–द्वेषादि शुभाशुभ
भावोमां जीवनुं अटकवुं ते बंध छे. मलिनतानुं थवुं ते आश्रव अने मलिनतामां अटकवुं ते बंध. मलिनतामां
अटकीने विकारने लंबाववो ते बंध छे. ए रीते आत्माना पर्यायमां पुण्य, पाप, आश्रव अने बंध, ए मलिन
भावोनो स्वीकार न थाय तो तेनाथी छूटवारूप धर्म करवानो अवकाश रहेतो नथी. भगवान त्रिलोकनाथ
सर्वज्ञदेवे जे प्रमाणे जीवादि नवतत्त्वनुं स्वरूप कह्युं छे तेम न समजे तो तेने अज्ञान टाळीने धर्म करवानो
अवसर रहेतो नथी.
“मारे धर्म करवो छे” एवी जिज्ञासा आ जीवने उत्पन्न थाय छे. आ जिज्ञासामां नवे तत्त्वो सिद्ध थाय
छे. “मारे धर्म करवो छे” ए ध्वनिमां “मारे” कहेतां हुं एक जीव तत्त्व छुं; एम प्रथम जीव सिद्ध थाय छे. हुं
मारी वर्तमान अवस्थामां अटकुं छुं, ते अटकवामां बीजुं माराथी विजातीय तत्त्व निमित्त छे, कारण के एकलो
आत्मस्वभाव अटकवानुं कारण होय नहि, परंतु आत्मस्वभावथी विपरीत स्वभाववाळा परद्रव्यने लक्षे जीव
अटके छे. माटे एक बीजुं निमित्त छे ते अजीव तत्त्व छे. जीव पोते पोतानी भूलथी परलक्षे विकाररूप परिणमे
छे. ते विकार पुण्य अने पाप एम बे प्रकारनो छे. पुण्य–पाप बेय विकार होवाथी मलिनतानी अपेक्षाए बंन्ने
थईने आस्रव छे. ते मलिनदशामां अटकवुं ते बंध दशा छे ए रीते चार मलिन तत्त्वो जीवनी क्षणिक हालतमां
छे. आ चार मलिन दशाने जेम छे तेम स्वीकारे नहि तो ‘मारे मलिनता टाळी धर्म करवो छे,” एवी जिज्ञासा
ऊठी शके नहि, अने ‘पुण्य–पाप आदिथी छूटीने स्वभावमां जवुं, बंधमां नहि अटकतां स्वभावमां जवुं’ एम
रहेतुं नथी, माटे जीवनी अवस्थामां चार मलिन तत्त्वो सिद्ध थाय छे.
(१७) सवरतत्त्व
वळी, ए रीते ज्यां चार मलिन भावोनो स्वीकार थयो, त्यां ‘ते मलिनभावो हुं नहि, हुं तो चैतन्य–
निर्मळ ज्ञानतत्त्व छुं,’ एवां श्रद्धा–ज्ञान प्रगट्यां ते संवर तत्त्व छे. ते निर्मळ दशा छे. हुं पुण्य, पाप, आस्रव
अने बंध नथी, हुं तो निर्मळ ज्ञान स्वभावी धु्रव तत्त्व छुं, एवी श्रद्धा थतां अवस्थामां विकारने अटकाव्या ते
संवर छे. विकारनुं अंशे अटकवुं अने स्वभावना आश्रये अंशे निर्मळ थवुं ते संवर छे.
चैतत्य ते जीव, अने जीवने विकारनुं निमित्त ते अजीव; जडने लक्षे थती क्षणिक विकारी दशाओ,
स्वभावना लक्षे ते क्षणिक विकार अंशे टळतां प्रगट थती अंशे निर्मळ पर्याय अने संपूर्ण विकारनो नाश थतां
प्रगट थती संपूर्ण निर्मळ पर्याय–ए बधानुं यथार्थ श्रद्धाज्ञान त्रिकाळी चैतन्य स्वभावना आश्रये थाय छे; ते
संवर छे. तेने कबूले नहि तो ते जीवने सम्यग्दर्शनरूपी धर्म थतो नथी. हुं त्रिकाळी शुद्ध चैतन्य छुं, क्षणिक
अवस्थामां विकार होवा छतां ते विकार मारा त्रिकाळी स्वभावमां नथी. पुण्यादि चार मलिनतत्त्वो छे ते दुःख
छे, तेथी रहित मारो त्रिकाळी स्वभाव सुखरूप छे, सुख मारा स्वभावमांथी आवे छे, एम जाणतां जे निर्मळ
दशा प्रगटे छे ते संवर छे. शुद्ध चैतन्य स्वभाव तरफ वळवानी दशा, शुद्धतानो अंश अने विकारने टाळवानो
उपाय एवो संवर न माने तो तेने “धर्म करवो छे,” एम रहेतुं नथी. धर्मदशा शरू थया पछी अंशे विकार अने
अंशे शुद्धता बेय अधूरी दशामां साथे होय छे. जेने धर्म करवो छे तेने आ नव तत्त्वनी यथार्थ प्रतीति विना
बने नहि एटले के थई शके नहि.
वळी नवतत्त्वनुं बराबर ज्ञान करीने पोताना त्रिकाळी धु्रव शुद्ध आत्मानी