Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: २०० : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७५ :
द्रष्टि करे तो सम्यग्दर्शन धर्म थाय; केवळ नव तत्त्वना भेदना रागमां रोकाय तो धर्म थाय नहि. नव तत्त्वना
भेदनो राग पण विकार छे. शुं विकारना लक्षे निर्मळता आवे? न ज आवे.
() िर्त्त्
पुण्य–पापनी रुचि, विकारनी रुचि अने तेमां अटकवानी एटले के बंधनी रुचि न छोडे तो प्रथम
सम्यग्दर्शन धर्म थतो नथी. विकार थवानी अने विकारमां अटकवानी रुचि छोडवी अने विकाररहित
धु्रवस्वभावनी रुचि करवी ते सम्यग्दर्शन धर्म छे; पछी जे कंई अशुद्धता रही तेनो अंशे अंशे नाश करवो अने
शुद्धतानी अंशे अंशे वृद्धि करवी, तेने निर्जरा कहे छे.
() क्ष त्त्
त्रिकाळी स्वभाव शुद्ध छे तेमांथी पर्यायमां शुद्धता थई छे; जो स्वभाव शुद्ध न होय तो तेने शुद्धता
करवानुं रहेतुं नथी. माटे त्रिकाळी स्वभाव शुद्ध छे. शुद्धिनुं बहारमां कोई साधन नथी. कोई निमित्तो, के बहारना
संयोगो शुद्धिनुं साधन नथी, परंतु पोतानो त्रिकाळी शुद्ध स्वभाव ज शुद्धि एटले के धर्मनुं निश्चय साधन छे.
लोको वातो करे छे के दुश्मनने अटकाववो जोईए के जेथी आपणने नुकसान न करे; परंतु खरेखर तो
आत्मानो दुश्मन बहारमां कोई नथी. पोतानी विकारी दशा ज पोतानो दुश्मन छे, माटे तेने अटकाववी जोईए.
स्वभावना आश्रये शुद्धता वधतां वधतां संपूर्ण विकार टळी गयो अने पूर्ण निर्मळ दशा प्रगटी गई, ते मोक्ष छे.
ए रीते विकारी अने अविकारी एवा पर्यायना भेदो, तथा पर्यायमां थता निर्मळताना भेदो न स्वीकारे
तेने शुद्धिनी वृद्धिना प्रकारो सिद्ध थता नथी.
() त्त् र् श्रद्ध
जो आ नव तत्त्वो न मानवामां आवे तो कोई वात सिद्ध थती नथी. (१) जीव न होय तो दुःख टाळवुं
कोने? (२) अजीव न होय तो दुःख कोना लक्षे थयुं? (३–४) पुण्य–पापरूप भूल, (प) भूलनुं थवुं; (६)
अने भूलनुं अटकी जवुं–ए रीते भूल एटले के दुःख न होय तो करवानुं शुं रह्युं? भूलने टाळीने निर्मळताने न
माने तो मोक्षना कारणरूप (७) विकारनुं अटकवुं–निर्विकारनुं प्रगट थवुं, (८) विकारनुं अंशे टळवुं अने
शुद्धिमां विशेष टकवुं तथा (९) विकारने सर्वथा टाळीने, संपूर्ण शुद्धता–मोक्ष प्रगट करवो, ए कांई रहेतुं नथी.
ज्यारे आ जीवे नवतत्त्वने यथार्थपणे जाण्यां त्यारथी तेने त्रिकाळी चैतन्यनो यथार्थ स्वीकार थयो;
प्रथम जे एकला विकारमां अटकतो, वर्तमान दशा जेटलो ज आत्माने मानतो, केवळ पुण्य–पाप आदि विकारने
ज पोतापणे स्वीकार करतो, ते हवे त्रिकाळी स्वभावनुं भान थतां पलटयो के ‘आ पुण्य–पाप जेटलो हुं क्षणिक
नथी; ते क्षणिक विकारी शुभाशुभभाव रहित हुं त्रिकाळी शुद्ध जीव पदार्थ छुं.’ आवा स्वभावनो जे भावे
स्वीकार कर्यो ते भावने सम्यग्दर्शन कहे छे. आ सम्यग्दर्शन एटले के आत्माना साचा भान विना धर्ममां एक
पगलुं पण आगळ चाले नहि; आवी आत्मानी साची श्रद्धा विना पुण्य–पाप आदि विकारने टाळवाने तथा
शुद्धता प्रगट करवाने कांई पण पगलुं भरी शकाय नहि.
मोह–राग–द्वेषादि रहित निर्मळ आत्मस्वभाव छे तेनो जे श्रद्धाए स्वीकार कर्यो ते श्रद्धाना बळथी
विकार घटवा मांडयो. स्वभावनी द्रष्टि वडे शुभा शुभ विकार टळतां टळतां आत्मानी अवस्थामां जे सर्वथा
निर्मळता थई, परिपूर्ण अविकारी दशा थई, परिपूर्ण परमानंद दशा प्रगट थई तेने मोक्ष दशा कहे छे.
जीव अने अजीव बे पदार्थ, तेना संयोगे थती पुण्य–पाप आस्रव बंध–ए चार विकारी दशा, अने ते
बेना वियोगथी थती संवर–निर्जरा–मोक्ष–ए त्रण निर्मळ दशा; ए प्रमाणे नव तत्त्वना स्वीकार विना धर्म करी
शकाय नहि. पुण्य–पाप आदि मलिनता जो बिलकुल न ज होय तो धर्म कोने करवो? अने जो पुण्य पाप आदि
विकारभावो जीवनो कायमी स्वभाव होय तो तेने टाळवा केम? परंतु जीवने पुण्य पाप आदि विकार भावने
टाळी निर्मळ दशा प्रगट करवानी छे. जीवनो निर्मळ पर्याय नवो प्रगट करवानो छे; जीवने कांई नवो करवो
नथी. जीव तो त्रिकाळी धु्रव शुद्ध स्वभावी पदार्थ छे, परंतु वर्तमान दशामां तेवी शुद्धता प्रगट करवानी छे. जेने
धु्रव स्वभावनो अनुभव करवो होय तेणे प्रथम आ नव तत्त्वने बराबर जेम छे तेम समजवा जोईए.