भेदनो राग पण विकार छे. शुं विकारना लक्षे निर्मळता आवे? न ज आवे.
धु्रवस्वभावनी रुचि करवी ते सम्यग्दर्शन धर्म छे; पछी जे कंई अशुद्धता रही तेनो अंशे अंशे नाश करवो अने
शुद्धतानी अंशे अंशे वृद्धि करवी, तेने निर्जरा कहे छे.
संयोगो शुद्धिनुं साधन नथी, परंतु पोतानो त्रिकाळी शुद्ध स्वभाव ज शुद्धि एटले के धर्मनुं निश्चय साधन छे.
स्वभावना आश्रये शुद्धता वधतां वधतां संपूर्ण विकार टळी गयो अने पूर्ण निर्मळ दशा प्रगटी गई, ते मोक्ष छे.
अने भूलनुं अटकी जवुं–ए रीते भूल एटले के दुःख न होय तो करवानुं शुं रह्युं? भूलने टाळीने निर्मळताने न
माने तो मोक्षना कारणरूप (७) विकारनुं अटकवुं–निर्विकारनुं प्रगट थवुं, (८) विकारनुं अंशे टळवुं अने
शुद्धिमां विशेष टकवुं तथा (९) विकारने सर्वथा टाळीने, संपूर्ण शुद्धता–मोक्ष प्रगट करवो, ए कांई रहेतुं नथी.
ज पोतापणे स्वीकार करतो, ते हवे त्रिकाळी स्वभावनुं भान थतां पलटयो के ‘आ पुण्य–पाप जेटलो हुं क्षणिक
नथी; ते क्षणिक विकारी शुभाशुभभाव रहित हुं त्रिकाळी शुद्ध जीव पदार्थ छुं.’ आवा स्वभावनो जे भावे
स्वीकार कर्यो ते भावने सम्यग्दर्शन कहे छे. आ सम्यग्दर्शन एटले के आत्माना साचा भान विना धर्ममां एक
पगलुं पण आगळ चाले नहि; आवी आत्मानी साची श्रद्धा विना पुण्य–पाप आदि विकारने टाळवाने तथा
शुद्धता प्रगट करवाने कांई पण पगलुं भरी शकाय नहि.
निर्मळता थई, परिपूर्ण अविकारी दशा थई, परिपूर्ण परमानंद दशा प्रगट थई तेने मोक्ष दशा कहे छे.
शकाय नहि. पुण्य–पाप आदि मलिनता जो बिलकुल न ज होय तो धर्म कोने करवो? अने जो पुण्य पाप आदि
विकारभावो जीवनो कायमी स्वभाव होय तो तेने टाळवा केम? परंतु जीवने पुण्य पाप आदि विकार भावने
टाळी निर्मळ दशा प्रगट करवानी छे. जीवनो निर्मळ पर्याय नवो प्रगट करवानो छे; जीवने कांई नवो करवो
नथी. जीव तो त्रिकाळी धु्रव शुद्ध स्वभावी पदार्थ छे, परंतु वर्तमान दशामां तेवी शुद्धता प्रगट करवानी छे. जेने
धु्रव स्वभावनो अनुभव करवो होय तेणे प्रथम आ नव तत्त्वने बराबर जेम छे तेम समजवा जोईए.