Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७५ : आत्मधर्म : २०१ :
अज्ञानी परमां सुख मानीने नि:शंक थाय छे, ज्ञानी स्वभावमां नि:शंक थाय छे.
खोराक–स्त्री लक्ष्मी वगेरे विषयोमां सुख कदी जोयुं नथी, अने त्यां सुख छे पण नहि. छतां, आत्मामां
सुख छे तेने भूलीने अज्ञानीओए पर विषयमां सुख मानी राख्युं छे. पैसा, मकान, खोराक शरीर वगेरे तो
परमाणुना बनेला छे–अचेतन छे, शुं ते अचेतन परमाणुमां सुख छे? –तेमां क्यांय सुख नथी, ने ते सुखनां
कारण पण नथी. छतां ऊंधी रुचिने लीधे त्यां निःशंकपणे सुख कल्पी राख्युं छे. ज्यां सुख नथी त्यां मान्युं छे
माटे ते मान्यता मिथ्या छे. जो ऊंधी रुचि फेरवीने आत्मानी रुचि करे तो आत्माना स्वभावमां सुख छे तेनो
प्रत्यक्ष अनुभव थाय. जो लाडवामां सुख होय तो तेनो अर्थ एम थयो के ज्यारे लाडवा खाय त्यारे आत्मामां
सुख आवे, अने पछी ज्यारे तेनी विष्टा थईने बहार नीकळी जाय त्यारे आत्मामांथी सुख नीकळी जाय!
लाडवामां सुख नथी, लाडवामां सुख भासे छे ते तो मात्र अज्ञानीनी मिथ्या कल्पना छे. ते कल्पना तो पोतामां
पोते ऊभी करी छे. सुखनी कल्पना क्यां थाय छे ते पण कदी विचार्युं नथी. आत्मा सिवाय बीजा कोई पण
पदार्थोमां सुख कदी जोयुं नथी अने छे ज नहि, छतां त्यां सुखनी कल्पना ऊभी करीने निःशंकपणे सुख मानी
लीधुं छे, असत् कल्पना ऊभी करी छे. परमां सुख न होवा छतां अने जोयुं न होवा छतां फक्त रुचिना
विश्वासथी मानी लीधुं छे. माटे ‘जुए तो ज माने छे’ –एम नथी पण ज्यां रुचे छे त्यां निःशंक थई जाय छे.
ऊंधी रुचिनुं जोर छे तेथी, ‘परमां सुख नथी’ एम लाखो ज्ञानीओ कहे तो य ते पोतानी मान्यता फेरवतो
नथी. तो, पोताना आत्मस्वभावमां तो सुख परिपूर्ण छे, तेने जाणीने मानवुं ते तो सत् पदार्थनी रुचि छे; जो
स्वभावनी प्रतीति अने रुचि करे तो स्वभावनुं सुख तो जणाय अने अनुभवमां आवे तेवुं छे. परमां सुख
मान्युं ते तो असत् प्रतीति हती, तेथी दुःख हतुं. परमां सुख छे ज नहि तो तेनी प्रतीति करवाथी सुख क्यांथी
प्रगटे? पोताना स्वभावमां सुख छे तेने मानवुं ते सत् प्रतीति छे, अने एवी प्रतीति करे तो स्वभावमांथी
सुख प्रगटे छे. ज्ञानमां जे जणाय तेने ज माने एवो जीवनी श्रद्धानो स्वभाव नथी पण पोताने जे रुचे छे तेने
ते माने छे, ने त्यां ते निःशंक थाय छे. जो स्वभावनी रुचि करे तो स्वभावनुं सुख तो ज्ञानमां अनुभवाय तेवुं
छे. आत्मानुं सुख परमां छे–एवी ऊंधी श्रद्धा ते ज महापाप छे. आत्मानो श्रद्धा गुण एवो छे के ज्यां रुचि
थाय त्यां ते निःशंक थई जाय छे. पोताना स्वभावमां निःशंक थाय तो धर्म थाय छे. अने परमां सुख मानीने
त्यां निःशंक थाय तो अधर्म थाय छे. परने जाणतां आत्मानुं ज्ञान परमां रोकाईने त्यां सुख मानी लीधुं छे. पण
ते मान्यतामां, ते ज्ञानमां, के पर वस्तुमां सुख पोते कदी जोयुं नथी; अने ते कोईमां सुख नथी एम अनंत
तीर्थंकरोए कह्युं छतां पोते ते मान्यता मूकतो नथी. जुओ, अनंत तीर्थंकरो कहे तो य पोताने जे वात रुचि ते
छोडे नहि एवी द्रढतावाळो छे. तेम स्वभावनी रुचिथी स्वभावमां सुखनी जेने श्रद्धा थई ते जीव एवो द्रढ होय
छे के ईन्द्रो तेने श्रद्धाथी डगाववा आवे तोय न डगे, आखुं जगत न माने अने प्रतिकूळ थई जाय तो य तेने
स्वभावनी श्रद्धा न फरे; आखो आत्मा केवळज्ञानमां जेवो प्रत्यक्ष जणाय तेवो ते जीवने भले प्रत्यक्ष न जणाय.
परंतु केवळीए जेवो जोयो तेवा ज परिपूर्ण आत्मस्वभावनी द्रढ प्रतीति तेने होय छे. जेवो आत्मा केवळीनी
श्रद्धामां छे तेवो ज आत्मा ते साधक धर्मात्मानी श्रद्धामां छे; ते श्रद्धामां ते निःशंक छे. कोईनी दरकार करतो
नथी. आवी प्रतीति करवी ते ज धर्मनो उपाय छे अफीण खावामां के अग्निमां बळवामां वगेरेमां सुख कल्पे छे.
शुं अफीणमां के अग्निमां सुख छे? त्यां सुख नथी, मात्र अज्ञानथी कल्प्युं छे. अज्ञानथी परमां सुख कल्पवामां
पण परनो आश्रय करतो नथी. अद्धरथी कल्पना ऊभी करीने न होय त्यां पण मानी ले छे. तो पोताना
स्वभावमां सुख छे, तेने कोई परनो आश्रय नथी, अने ते स्वभावनी श्रद्धा पण परना आश्रय वगरनी छे.
–भेदविज्ञानसार