Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७५ : आत्मधर्म : १९१ :
लेखांक १०] वीर संवत २४७३ भादरवा सुद ३ बुधवार अंक ६९ थी चालु]
श्री परमात्म प्रकाश गाथा ७ – ८ – ९
[८१] व्यवहार पंचाचार बंधनुं कारण होवा छतां तेने परंपरा मोक्षना साधक केम कह्या?
जेने शुद्धात्मस्वरूपना आश्रये निश्चय–श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र–तप ने वीर्यरूप अभेद पंचाचार प्रगट्या होय
एवा साधुने विकल्परूप दशामां व्यवहारपंचाचार होय छे. व्यवहारपंचाचार ते विकल्परूप छे पण देहनी क्रियामां
नथी; मुनिदशामां घणी वीतरागता तो प्रगटी छे पण हजी पूरी वीतरागता थई नथी तेथी आ प्रकारनो राग होय
छे, ते रागने व्यवहार–पंचाचार कहेवाय छे, ते राग बंधनुं कारण छे. ते व्यवहारपंचाचारने परंपरा मोक्षना
साधक कह्या छे. परंपरा साधक एटले के ते राग तो बाधक ज छे, पण जे निश्चय पंचाचार छे तेना जोरे रागनो
परंपरा अभाव करीने मोक्षदशा प्रगट करशे, –एथी उपचारथी ते रागने परंपरा मोक्षनुं कारण अथवा तो
मोक्षनो साधक कहेवाय छे. आ बाबतनो खुलासो अ २ गा. १४नी टीका (पा. १४२) मां सरस आप्यो छे; त्यां
शिष्य पूछे छे के निश्चय मोक्षमार्ग तो निर्विकल्प छे, ते वखते सविकल्प मोक्षमार्ग होतो नथी, तो ते सविकल्प
मोक्षमार्ग अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग साधक कई रीते छे? श्रीगुरु तेनो खुलासो करतां कहे छे के–भूतनैगमनये
उपचार करीने ते व्यवहारने परंपरा साधक कहेवाय छे. एटले के निश्चयमोक्षमार्गरूप निर्विकल्पदशा प्रगट्या
पहेलांं व्यवहारमोक्षमार्ग रूप विकल्पदशा हती एम पूर्वना रागनी हयातीनुं ज्ञान करवा माटे तेने उपचारथी
साधक कहेवामां आवे छे, परमार्थे तो राग ते बाधक ज छे, व्यवहारमोक्षमार्ग बाधक छे. पोताना शुद्धात्मानी
श्रद्धा, तेनुं ज्ञान, तेमां स्थिरता, तेनी एकाग्रतावडे ईच्छानो निरोध अने पोतानी आत्मशक्तिनुं प्रगट करवुं–
एवा निश्चयपंचाचार ते साक्षात् मोक्षनुं कारण छे. आवा पंचाचार मुनिओने होय छे.
[८२] श्रीआचार्यने नमस्कार
एवा मुनिओमां तेओ पोते निश्चय पंचाचारने आचरे छे अने बीजा पासे पण तेनुं आचरण करावे छे
एवा श्री आचार्य छे, तेमने हुं नमस्कार करुं छुं.
[८३] श्री उपाध्यायना उपदेशनुं स्वरूप अने तेमने नमस्कार
श्री उपाध्याय केवा छे? पंचास्तिकायमां शुद्ध जीवास्तिकायने ज ग्रहण करवानो उपदेश आपे छे. कोई
विकल्पने, के देव–गुरु–शास्त्रने ग्रहण करवानो उपदेश करता नथी पण शुद्ध जीवास्तिकाय ज उपादेय छे–एवो
उपदेश आपे छे; छ द्रव्यमां निज शुद्धद्रव्य ज उपादेय छे, कोई पण परद्रव्य उपादेय नथी; सात तत्त्वमां शुद्ध
जीवतत्त्व ज उपादेय छे. साततत्त्वने जाणीने तेमां शुद्ध जीवतत्त्वने ज अंगीकार करवानो उपदेश छे. सात
तत्त्वना भेद–विकल्प आदरणीय नथी, पण अभेद शुद्ध जीवतत्त्व ज आदरणीय छे. संवर–निर्जरा–मोक्ष पण
पर्याय छे, तेनी द्रष्टि पण अंगीकार करवा जेवी नथी. अने नव पदार्थोमां शुद्ध जीवपदार्थ ज आदरणीय छे. अने
बीजुं बधुं त्यागवा योग्य छे एवो उपदेश उपाध्याय आपे छे. पर तरफ लक्ष नहि, ते तरफनो विकल्प पण
छोडवा जेवो छे, पर्यायनुं लक्ष पण छोडवा जेवुं छे–एम विकार तथा पर्याय भेदने गुणभेदनुं लक्ष छोडीने
अभेदस्वभाव तरफ ढळतां परिणति पोते ज शुद्धस्वभावमां लीन थाय छे, पछी पर्यायनुं उपादेयपणुं क्यां
रह्युं? शुद्धात्मस्वभावनी श्रद्धा तेनुं ज्ञान ने तेमां स्थिरता रूप चारित्र ते रूप अभेदरत्नत्रय ज निश्चय
मोक्षमार्ग छे–आवो उपदेश शिष्योने आपे छे ते उपाध्याय छे, तेमने नमस्कार करुं छुं.
पहेलांं ‘शुद्धद्रव्यस्वभाव अंगीकार करवा योग्य छे’ एम कह्युं, हवे अहीं पर्यायनी वात जणावे छे, के
अभेदरत्नत्रय ते निश्चय मोक्षमार्ग छे; पण अहीं ते पर्यायने उपादेय जणाव्यो नथी. द्रव्यस्वभावने अंगीकार
करवानो उपदेश छे, अने द्रव्य स्वभावनी एकाग्रताथी जे निर्मळदशा प्रगटी तेनुं ज्ञान करावे छे पण ते
पर्यायनी द्रष्टि करवानो उपदेश नथी. पोतानी निर्मळ अवस्थानी पण उपेक्षा करवानो उपदेश छे तोपछी
निमित्तनी के रागनी अपेक्षा करवानुं तो केम होय? –एनुं तो लक्ष छोडवा जेवुं छे.
आ तो हजी पंच परमेष्ठीने नमस्काररूप मंगळिक चाले छे. पंचपरमेष्ठीने