गाथा – ८
गाथा – ९
: १९२ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७५ :
नमस्कार करतां तेमना स्वरूपनी ओळखाण करावी छे अने तेमां धर्म कई रीते आवे छे ते जणाव्युं छे.
[८४] श्रीसाधुने नमस्कार
आचार्य–उपाध्यायने ओळखीने तेमने नमस्कार कर्या, हवे साधुने ओळखीने तेमने नमस्कार करवामां
आवे छे–शुद्धज्ञानस्वभावी शुद्धात्मतत्त्वनी आराधनारूप वीतरागनिर्विकल्प समाधिने जे साधे छे ते साधु छे.
तेमने मारा नमस्कार हो.
ए रीते प्रथमना सात दोहाओमां श्रीयोगीन्द्राचार्यदेवे पंचपरमेष्ठीने नमस्कार कर्या; ए नमस्कार द्वारा
पोताना शिष्य प्रभाकरभट्टने पण पंचपरमेष्ठीनो उपदेश कर्यो. –७–
[८५] श्री प्रभाकरभट्ट विनंति करे छे
पूर्वोक्त रीते पंचपरमेष्ठीना स्वरूपने ओळखीने अने तेमने नमस्कार करीने हवे प्रभाकर भट्ट पोताना
गुरुने विनंति करे छे–
भाविं पणविवि पंचगुरु सिरि जोइंदु जिणाउ।
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।। ८।।
अर्थ:– प्रभाकरभट्ट शुद्धभावोवडे पंचपरमेष्ठीओने नमस्कार करीने, पोताना भावोने पवित्र करीने
श्रीयोगीन्द्रदेव नामना पोताना गुरु प्रत्ये शुद्धात्मतत्त्व जाणवा माटे महा भक्तिपूर्वक विनंति करे छे.
जेमनी पासेथी शुद्धात्मतत्त्व जाणवुं छे ते पुरुष प्रत्ये महान विनय ने महा भक्ति वगर जीवने
शुद्धात्मतत्त्वनो उपदेश यथार्थ समजाय नहि. अध्धरथी बुद्धिमां न्याय पकडीने माने के हुं समजी गयो, पण
यथार्थ विनय वगर ते ज्ञान परिणमे नहि.
तेथी अहीं प्रभाकरभट्ट पोताना गुरु प्रत्ये विनय अने भक्तिथी विनंति करतां कहे छे;–शुं कहे छे? ते
आ प्रमाणे–
[८६] श्रीगुरु पासेथी शुद्धात्म स्वरूप समजवा प्रभाकरभट्टनी झंखना
गउ संसारि वसंताहं सामिय कालु अणंतु।
पर मइं किं पि ण पत्तु सुहु दुकखु जि पत्तु महंत्तु।। ९।।
अर्थ:– हे स्वामी! आ संसारमां वसतां मारो अनंतकाळ वीती गयो, परंतु हुं जरापण सुख पाम्यो
नथी, महान दुःख ज पाम्यो छुं.
अहीं प्रभाकरभट्ट पोकार करीने धगशथी विनंति करे छे के हे भगवन्! में शुद्धात्मतत्त्व कदी सांभळ्युं
नथी तेथी अनंत अनंतकाळ संसारमां वीती गयो पण जराय सहजानंद न पाम्यो. अहीं शुद्धात्मस्वरूप जाणवा
माटे झंखनाथी प्रश्न पूछयो छे. श्रीजयधवलामां कह्युं छे के जे शिष्य प्रश्न नथी पूछतो तेने श्रीगुरु उपदेश करता
नथी. तेनो अर्थ एवो छे के जे शिष्यने अंतरथी समजवानी धगश नथी जागी अने जे महा भक्ति–विनयथी
श्रीगुरुना उपदेशने सांभळतो नथी तेने शुद्धात्मतत्त्वनो उपदेश नहि समजाय.
जेवो पंचपरमेष्ठी भगवाननो सहज आनंद बताव्यो तेवो आनंद हुं कदी पाम्यो नथी पण संसारमां
महान दुःख ज पाम्यो छुं. तेथी हवे हुं परमात्मस्वरूपनो उपदेश सांभळवा ईच्छुं छुं. जे शिष्य लायक होय तेने
शुद्धात्मस्वरूपने समजवानी ज झंखना होय छे, पण कोई व्यवहारनी वातमां तेने होंश होती नथी. ते कहे छे के
हे नाथ, शुद्धात्माना भान वगर संसारमां रखडतां चारे गतिमां हुं दुःख ज पाम्यो छुं स्वर्गमां पण दुःख ज
पाम्यो छुं, पण शुद्ध आत्मस्वरूपनी ओळखाण वगर हुं क्यांय जराय सुख पाम्यो नथी. माटे मने ते
शुद्धात्मस्वरूपनो उपदेश कृपा करीने आपो.
आत्मकल्याणनी अपूर्व वात
आ आत्मकल्याणनी अपूर्व वात छे. झट न समजाय तो अरुचि के कंटाळो लाववो नहि पण
विशेष अभ्यास करवो, ‘आ मारा आत्मानी अपूर्व वात छे, आ समजवाथी ज कल्याण छे’ –एम
अंतरमां तेनो महिमा लावीने रुचिथी श्रवण–मनन करवुं. बधा आत्मामां आ समजवानी ताकात छे.
हुं पुरुष छुं, हुं स्त्री छुं, हुं वृद्ध छुं, हुं बाळक छुं–एवी शरीरबुद्धिने छोडीने अंतरमां एम लक्ष करवुं के हुं
आत्मा छुं, शरीरथी जुदो ज्ञानस्वरूप छुं. दरेक आत्मा भगवान छे–ज्ञानस्वरूपी छे, तेनामां पूरेपूरुं
समजवानी ताकात भरी छे. माटे ‘मने न समजाय’ एवुं शल्य काढी नाखीने, ‘मने बधुं समजाय एवी
मारी ताकात छे’ एम विश्वास करीने समजवानो प्रयत्न करवो. रुचिपूर्वक प्रयत्न करे तेने न समजाय
एम बने नहीं. आमां बुद्धिना उघाडनी बहु जरूर नथी पण रुचिनी जरूर छे. “भेदविज्ञानसार”