Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७५ : आत्मधर्म : २११ :
तत्वनुं ग्रहण थई शकतुं नथी, ए विचारमां तो रागस्वरूप भेदनो विकल्प आवे छे. अभेद शुद्ध आत्मस्वरूपने
ज उपादेयपणे अंगीकार करीने त्यां एकाग्र थतां मोक्षदशा सहज थाय छे.
‘मारो मोक्ष करुं’ एवो भाव थाय ते अंगीकार करवा जेवो नथी; केम के वर्तमानमां मोक्षदशा तो नथी
तेथी तेना उपर लक्ष करवाथी पर्यायबुद्धि टळशे नहि. अने आत्मस्वभाव लक्षमां आवशे नहि. जे त्रिकाळ
आत्म स्वभाव छे तेना उपर लक्ष करवाथी ज पर्यायबुद्धि टळे छे; माटे ते त्रिकाळी द्रव्य ज उपादेय छे, ए
सिवाय साते तत्त्वो हेय छे. माटे, आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! तारे उपादेयस्वरूप तो एक आत्मस्वभाव छे
एम तुं समज, तेनी ओळखाण कर.
अहीं आचार्यदेव आत्मस्वभाव समजावतां कहे छे के जीवअजीवादि साते तत्त्वना विकल्पो ते परद्रव्य छे,
अने ए सात तत्त्वोना विकल्पथी अगोचर जे शुद्ध अभेद आत्मस्वरूप छे ते ज एक स्वद्रव्य छे ते ज जीव छे,
अने एनो ज अंगीकार करवानो छे; शुद्ध जीवने अंगीकार करवाथी शुद्धभाव प्रगटे छे. अंगीकार करवो एटले
तेनी श्रद्धा करवी, तेनुं ज्ञान करवुं अने तेमां लीन थवुं. ज्यां सात तत्वना भेदनी श्रद्धा छे त्यां एक स्वतत्त्व
अनुभवातुं नथी, ने एक स्वतत्त्वनी श्रद्धामां सात तत्वना विकल्पो नथी. सात तत्त्वना विचारमां क्रम पडे छे
अने राग थाय छे. एक स्वतत्त्वनी श्रद्धामां भेद नथी, राग नथी माटे पोतानुं एक शुद्ध स्वरूप जेम छे तेम
जाणीने तेमां ठरवुं, ते ज धर्म अने मोक्षमार्ग छे.
श्री नियमसार गा. ३८ उपरना प्रवचनमांथी
[उमराळा: वीर संवत २४७५ माह सुद १० मंगळवारना रोज पू. गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान
बपोरे ३ थी ४ पद्मनंदी पच्चिसी]
आसद्बोध चंद्रोदय अधिकार छे. आ आत्मा अनादिनो छे, पण ते केवा स्वभावे छे ते वात आत्माए
एक सेकंड मात्र पण जाणी नथी. सद्बोध चंद्रोदय एटले साचा ज्ञान रूपी चंद्रनो उदय; आत्माना स्वरूपने
ओळखे तो साचुं ज्ञान प्रगटे. सत्समागम विना ते कदी जणाय तेम नथी. आ शरीर तो आत्मानुं नथी, पण
अंदर जे राग–द्वेष, पुण्य–पाप, क्रोध–भक्ति वगेरे भावो थाय छे ते पण विकार छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी.
आत्मानुं स्वरूप तो जे कायम टकी रहे तेने कहेवाय. आत्मा जे स्वरूपे छे ते स्वरूपे एक सेकंड मात्र जो जीव
समजे तो तेने जन्ममरण रहे नहि. जेमणे रागद्वेष टाळी पूर्ण परमात्म दशा प्रगट करी एवा भगवान अरिहंत
सर्वज्ञदेवना श्रीमुखथी दिव्यध्वनि छूटे छे, तेमां आत्मस्वभावनी वात आवे छे, ते समजीने जे आत्माने
अनुभवे छे तेने जन्म–मरणनो नाश थाय छे.
अहीं ते आत्मस्वरूपनी वात चाले छे. ते आत्मस्वरूप एवुं छे के बृहस्पति पण तेनुं वर्णन वाणीथी न
करी शके. जेम घीनो स्वाद जाणवामां आवे पण वाणीद्वारा कहेवामां आवी शकतो नथी. तेम आत्मस्वभावनो
महिमा अनुभवमां आवे, पण वाणीद्वारा कहेवाय तेवो नथी. जे स्वरूपे आत्मा छे ते स्वरूपे तेने ज्ञानथी
जाणवो–मानवो ने अनुभववो ते ज धर्म छे. ए सिवाय बहारमां क्यांय धर्म नथी. भाई रे, धर्म तो अंतरनी
वस्तु छे, कांई बहारनी वस्तु नथी. पुण्य करे तेनाथी बहारनां राजपद के देवपद मळे, पण जेनाथी जन्म–मरण
टळे एवो धर्म तेनाथी जुदो छे. धर्म तो एवो छे के जीव जो एक सेकंड पण तेनुं सेवन करे तो मुक्ति थई जाय.
जेम दीवासळीना टोपकामां अग्नि भर्यो छे, तेमांथी ते प्रगटे छे, तेम आत्मानी शक्तिमां केवळज्ञानज्योत
थवानी ताकात छे, तेनामां शक्ति छे तेने ओळखीने तेमां एकाग्रता करतां केवळज्ञान प्रगटीने आत्मा पोते
परमात्मा थई जाय छे. क्षणिक पुण्य–पापना भरोंसे आत्मानुं कल्याण थाय नहि. अने आ शरीर जड छे, तेना
भरोंसे आत्मानुं हित थाय नहि. पण पोतामां परमात्मा थवानी ताकात छे तेने ओळखीने तेना भरोंसे
अंतरनी शक्ति प्रगटीने पोते परमात्मा थाय छे. माटे हे जीव! अंदरमां परमात्मस्वभाव छे तेनो विश्वास कर.
शरीर, पैसा के पुण्य–पाप क्षणिक छे तेना भरोंसे तारुं कल्याण थतुं नथी, माटे तारुं स्वरूप शुं छे तेनी
ओळखाण तो कर.
लींडीपीपरमांथी तीखाश प्रगटे छे केम के तेमां भरी छे, पण ऊंदरनी