Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: २१२ : आत्मधर्म : आसो : २४७५ :
लींडीमांथी तीखाश प्रगटे नहि. तेम आत्मामां ज्ञानशक्ति भरी छे तेमांथी ज्ञान प्रगटे छे. ज्ञानीनो उपदेश
आत्मानी ओळखाण करवानो छे. सत्समागमे तेनी ओळखाण करवी जोईए. अनंत अनंत काळथी आ आत्मा
छे, तो ते केवो छे? ते ओळखवानी दरकार करवी जोईए. मनुष्यदेह अनंतकाळे मळे छे, तेमां आत्माने
समजवानी दरकार करवी जोईए. सत्समागमे वारंवार तेनो परिचय करीने समजवुं जोईए. तेनी ओळखाण
करवी ते ज मनुष्यदेहमां आव्यानुं खरु फळ छे. बाकी पुण्य करीने स्वर्गमां जाय के पाप करीने नर्कमां जाय–ते
कांई नवुं नथी.
अहो, आवो मनुष्यदेह मळ्‌यो, ने जो आत्माने न जाणे तो अवतार नकामो छे. जेम सर्वव्यापी
आकाशने हृदयमां समावी देवानुं कठण छे, तेम आत्मस्वभावनुं वर्णन वाणीद्वारा करवुं कठण छे. छतां जे जीव
दरकार करीने तेने समजवा मागे ते जीवने सत्समागमे ज्ञानमां समजाय छे. अनंता जीवो ते समजीने मुक्त
थया छे, अत्यारे पण आत्माने समजनारा छे, ने भविष्यमां अनंता थशे. पुण्य अने पाप तो आखी दुनिया
करे छे, पण आत्मानी समजण करनारा कोईक विरला ज होय छे. परमां सुख माने ने सुख माटे परनी
ओशियाळ माने ते तो मागण छे, कोई लाखो रूपिया मागे, कोई हजार मागे, कोई सो मागे; झाझुं मागे ते
मोटो मागण छे ने थोडुं मागे ते नानो मागण छे. अने एम समजे के अहो! हुं आत्मा छुं, मारे कांई जोईतुं
नथी, मारुं–सुख मारामां छे, मारे तो हवे आत्मा समजवो छे–एम जे भावना करे छे ते मोटो बादशाह छे.
भले गृहस्थदशामां होय छतां अंतरमां आत्मानुं भान करे ते धर्मात्मा छे, ने तेने जन्म–मरणनो अंत थई जशे.
जेम पर्वत पर वीजळी ५डे ने बे कटका थई जाय, पछी ते फरीथी संधाता नथी, तेम जे जीव एक सेकंड पण
आत्मानी समजण करे छे तेनो संसार तूटी जाय–छे. जेम कोईकना घरे लक्ष्मीनो ढगलो जोईने “आ लक्ष्मी
मारी” एम लोको मानता नथी, तेम धर्मी जीव आ शरीरादिने के पुण्य–पापना भावोने पोतानुं स्वरूप मानता
नथी; ते धर्मी जीवो आत्मस्वभावने जाणे छे, पण वाणी द्वारा कहेवो कठण छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे–जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां, कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो. तेह
स्वरूपने अन्यवाणी तो शुं कहे? अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.
आवा आत्माने जाण्या विना कोई रीते कल्याण नथी. जेणे आत्माने जाण्यो नथी ने पैसानो ओशियाळो
थई रह्यो छे, ते मोटो भिखारी छे.
जैनदर्शनमां सात तत्वो छे–जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, अने मोक्ष.
जे जाणे छे ते जीव छे.
शरीर वगेरे अजीव छे, तेनामां ज्ञान नथी.
पुण्य–पाप ते आस्रव छे.
ते पुण्य–पापमां अटकवुं ते बंधन छे.
ते पुण्य–पाप रहित चैतन्यमूर्ति आत्मा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप छे, तेनी ओळखाण करीने ठरवुं ते संवर–निर्जरा
रूप धर्म छे. अने पूरी शुद्धदशा प्रगटी जाय ते मोक्ष छे. पहेलांं तो परिपूर्ण आत्मानो विश्वास आववो जोईए.
घणा विवेकथी, घणा सत्समागमथी घणी रुचिथी अने घणी पात्रताथी आत्मा समजाय छे. आत्मा एवो
नथी के समजाय नहि. जो आत्मा समजी न शकाय तो तो धर्म ज क्यांथी जाय? आ जगतमां लाखो रूपिया
मळे के स्वर्ग मळे –ते दुर्लभ नथी, आत्मानी समजण ज दुर्लभ छे. आ मानवजीवनमां एवा आत्मानी समजण
करवा जेवी छे.
आत्माना अंतर–आनंदमां झूलतां झूलतां, जंगलमां श्रीपद्मनंदी मुनिवरे आ शास्त्रनी रचना करी छे;
ते–माताए जन्म आप्यो त्यारथी–बाळक जेवा नग्न दिगंबर संत हता, तेमणे जंगलमां आ वात लखी छे. तेओ
कहे छे के आ आत्मस्वभावनो महिमा जगतमां जयवंत वर्ते छे.
अहो, अज्ञानीओ एक बीडी पीवामां सुख माने छे, मकानमां सुख माने छे, शरीर–पैसामां सुख माने
छे, स्त्रीमां सुख माने छे, पण आत्मामां सुख छे तेने जाणता नथी. आत्मतत्त्व ज मोक्षना सुखने देनारुं छे;
आचार्य देव कहे छे के अहो? एवा अमारा आत्मतत्त्वनो जय थाओ, ने विकारनो पराजय थाओ. जगतना
जीवो पोतानी चैतन्य जातनो महिमा भूलीने परमां सुखना झांवा नांखी रह्या छे, पण परमां क्यांय सुख नथी
परपदार्थ प्रत्येनी ईच्छा ते दुःख छे. सुख तो आत्मामां छे, तेने ओळखे तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्
चारित्रनुं सुख प्रगटे छे. सुखनो देनार आत्मा छे, तेनी श्रद्धा ज्ञान करवी ते धर्म छे. लोको क्रिया क्रिया करे छे,
पण आत्मानी साची