Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७५ : आत्मधर्म : २१३ :
ओळखाण अने बहुमान ते ज निर्विकारी क्रिया छे.
शरीरनी क्रियामां क्यांय धर्म नथी,
जेम बीजनो चंद्र ऊग्या पछी क्रमे क्रमे ते पूरो थाय छे तेम आत्मानी साची समजण एक सेकंड पण
प्रगट करे तेने केवळज्ञान प्रगट्या वगर रहे नहि. जीवनमां आत्माने समजवा माटे थोडी थोडी निवृत्ति लईने,
राग घटाडवो जोईए.
आ हजी शरूआतनुं मंगळ चाले छे; तेमां आचार्य भगवान कहे छे के अहो, आत्मतत्त्वनो महिमा
जयवंत हो. एटले आत्म स्वभावना आश्रये अमने जे साधकदशा प्रगटी छे ते जयवंत रहो, ते दशा क्रमे क्रमे
आगळ वधीने पूर्ण सिद्धदशा थशे, ने विकार टळी जशे.
‘नमो अरिहंताणं’ ने ‘नमो सिद्धाणं’ एमा अरिहंत अने सिद्धने नमस्कार करे छे, ते अरिहंत अने
सिद्ध ए बन्ने आत्मानी ज पवित्र दशाओ छे, ते नामनो कोई पुरुष नथी. अरिहंत अने सिद्ध तो पुण्य–पाप
टाळीने वीतराग थई गया. जे पुण्य रहित छे तेमने नमस्कार करे अने पाछो पोते पुण्यनी भावना करे, ते तेणे
खरेखर अरिहंत के सिद्धने नमस्कार कर्या नथी. पुण्य–रहित वीतराग पुरुषने नमस्कार करनार पुण्य मागे नहि.
धर्मीने पुण्य–पापभाव थाय, पण द्रष्टिमां एम छे के मारे आ पुण्य जोईतां नथी. मारुं पुण्यरहित स्वरूप छे, ते
मारे जोईए छे. अहो, हुं अनादि अनंत, मारो कदि नाश थाय नहि, अने आ पुण्य–पाप तो नाशवान छे, ते
मारी चीज नथी. –एम धर्मीने ओळखाण छे.
अरिहंतोना पुण्यनी बलिहारी छे, ईन्द्रो तेमना चरणकमळने पूजे छे, छतां धर्मी भक्त कहे छे–हे नाथ,
आप पुण्य पाप रहित वीतराग थया छो, आ बहारनी सामग्री मारे जोईती नथी पण अंतरमां जे वीतरागता
प्रगटी छे ते जोईए छे. ए रीते अरिहंतने नमस्कार करनार जीवने पुण्यनी भावना होती नथी. तेमज मुनिने
तो बहारमां दागीना, लूगडां, घरबार कांई नथी, छतां तेमने नमस्कार करे छे. खरेखर त्यां नमस्कार करनारनी
एवी भावना छे के हे प्रभो, आपनी पासे घरबार, वस्त्र, दागीना कांई न होवा छतां अंतरमां कांईक अपूर्व
चीज छे ते मारे जोईए छे. मारी पासे पैसा घरबार, दागीना छे पण तेमां सुख नथी, ए बधां पुण्यनां फळ छे
पण तेमां सुख नथी, आपना आत्मामां राग–द्वेष टळीने सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्र प्रगट्या छे, तेमां खरेखर
सुख छे. –आम समजनार ज खरेखर धर्मात्मा ने नमस्कार करी शके. माटे पुण्य–पापरहित आत्मानुं स्वरूप छे
तेनी पहेलांं समजण करवी जोईए.


आ शुद्धभाव–अधिकार चाले छे. आत्मानो स्वभाव ए ज शुद्ध भाव छे, ने ते ज आदरणीय छे. ए शुद्ध
स्वभावने मानवो ते सम्यग्दर्शन छे. आत्मानो शुद्ध स्वभाव परथी जुदो ने विकारथी रहित शी रीते छे ते
जाणीने, तेनी रुचि करवी ते सम्यग्दर्शन छे. स्वभाव शुं अने परभाव शुं–ए जाण्या वगर स्वभावनी रुचि
थाय नहि. ने परनो महिमा टळे नहि. अने त्यां सुधी जीवने धर्म थाय नहि.
जीव पोताना स्वभावने भूलीने परनी गमे तेवी रुचि करे ने कर्ता पणाना थनगणाट करे, पण तेथी पर
चीज कांई पोतानी थई जती नथी, ने पोते पर चीजनुं कांई करी शकतो नथी. पोताना स्वभावनी पूर्णतानो
महिमा जाण्यो नथी तेथी विकारथी ने परथी पोतानो महिमा मानी रह्यो छे. शुभभाव करे त्यां तो में घणुं कर्युं
एम मानी ले छे, अने धार्या प्रमाणे बहारमां अनुकूळता देखे त्यां तो जाणे के हुं आनाथी भरपूर छुं–पण ते
अज्ञानीने खबर नथी के ज्ञान–सुखथी भरपूर तो पोतानो स्वभाव ज छे, ने ते ज पोताने शरणभूत छे,
बहारनी कोई वस्तु जराय शरणभूत नथी अने विकार पण शरणभूत नथी. जेने पोताना स्वभावनी विकारथी
ने परथी भिन्नता नथी भासती, ने विकारमां तथा परमां ज एकाकारपणुं मानी रह्यो छे ते पोताना शुद्ध भावने
उपादेय जाणतो नथी; ते मिथ्याद्रष्टि छे. अने जे जीव पोताना शुद्ध भावने विकारथी ने परथी जुदो जाणीने
उपादेय माने छे ते धर्मात्मा सम्यग्द्रष्टि छे.
आ जीवने पर वस्तुओ जरा पण शरणभूत नथी. परंतु ‘मने पर वस्तुओ शरणभूत नथी, ने तेमां