Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: २१४ : आत्मधर्म : आसो : २४७५ :
मारुं सुख नथी’ एम अज्ञानीने मूढबुद्धिथी देखातुं नथी. पोते सदाय परिपूर्ण भगवानस्वरूपे अंतरमां स्थित
छे, एने तो भूली ज जाय छे, अने वर्तमानमां अशुभ छोडीने शुभ परिणाम करे त्यां तो पोते भरपूर होय
एम अज्ञानीने लागे छे. पण श्रीगुरु कहे छे के–भाई, पुण्य तारुं स्वरूप नथी. पुण्य कर्या तेथी तारा आत्मानी
मोटाई नथी. तारो आत्मा तो पुण्य–पाप रहित अत्यारे ज एकरूप ज्ञानभावे भरपूर छे, एमां ज तारुं सुख
छे, ए ज तारे उपादेय छे. तुं एने भूलीने, पुण्य–पापमां तारुं एकत्व मानी रह्यो छे अने तेमां सुख माने छे,
पण भाई! ए ऊंधी मान्यताथी तो करोडो काळा वींछीना डंखनी वेदना करतां य वधारे दुःखनी वेदना तुं
भोगवी रह्यो छे. माटे शुद्ध स्वभावना अभ्यास वडे ते मान्यता छोड.
जे शुभ के अशुभ परिणाम थाय छे ते आत्माना मूळ स्वरूपमां नथी, पण पर्यायमां उपरटपके थनारा
विकार भावो छे. ते उपरटपके थनारा भावो जेटलो आत्माने न मानतां, तुं अंतरना मूळ स्वरूपने जो. जेम
समुद्रना पाणीमां क्यांक मेलुं मोजुं देखाय, पण कांई आखो समुद्र मेलो नथी. क्षणिक मेलुं मोजुं आखा समुद्रने
मेलो करवा समर्थ नथी. मेलां मोजां वखते पण समुद्र तो निर्मळ छे. तेम आ आत्मा चैतन्यसमुद्र छे. तेनी
वर्तमान दशामां जे मलिनता देखाय छे ते क्षणिक छे, आखुं आत्मस्वरूप मेलुं नथी, आत्मस्वरूप शुद्ध एकरूप
छे. क्षणिक विकार थाय छे ते भाव आखा शुद्ध स्वरूपने मलिन करवा समर्थ नथी. विकार जेटलो ज आत्मा
मानवो ते अज्ञान छे; ने शुद्ध आत्म स्वरूपने मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे.
मीठा जळथी भरेला समुद्रना मोजामां जे मलिनता देखाय छे तेटलो ज कांई आखो समुद्र नथी. मूळ
स्वरूपे समुद्रने जुओ तो ते समुद्र अने तेनुं पाणी एकरूप चोकखां छे, मोजांनी मलिनता तो बहारनी उपाधि
छे. तेम आ आत्मा सहज चैतन्यरूप छे तेमां वर्तमान जे विकारभाव देखाय छे ते तेना मूळ स्वरूपमां नथी. जो
एकला आत्माने मूळस्वरूपे जुओ तो, तेना द्रव्यमां–गुणमां के वर्तमान वर्तता भावमां पण विकार नथी.
आत्मानुं मूळ स्वरूप शुद्ध छे ते उपादेय छे. जेम समुद्रनो एवो स्वभाव छे के मेलने पोतामां रहेवा दे नहि पण
ऊछाळीने बहार फेंकी दे. तेम आ आत्मस्वरूपमां विकारभावोनो प्रवेश थई शकतो नथी. आत्मा अंर्ततत्त्व छे
ने विकार बर्हितत्त्व छे; अंतरतत्त्वमां बर्हि तत्त्वनो प्रवेश नथी. आत्मानो स्वभाव विकारनो नाश करवानो
छे. आवो आत्मस्वभाव ज अमृतरूप छे, एनी ओळखाण सिवाय बीजा जेटला भावो करे ते बधाय झेररूप
संसार स्वरूप छे.
पुण्य–पाप परिणाममां के तेना फळने भोगववामां आनंद मानवो ते मूढता छे. पुण्यपरिणाम करीने
एम मानवुं के ‘में बहु सारा भावो कर्यां,’ ते अग्निना लावा भोगववा जेवुं छे. जेम कोई गांडो माणस अग्निथी
झगमगता कोलसाने हाथमां लईने एम माने के हुं अग्निना लहावा लउं छुं. मने बहु आनंद आवे छे. पण
अग्निथी पोतानो हाथ बळी जाय छे तेनुं तेने भान नथी. तेम पुण्य –परिणामना वेदनथी तो आकुळतारूपी
अग्निमां आत्मा बळी रह्यो छे, पण अज्ञानी तेमां शांति माने छे.
आत्मा पोताना स्वभावथी भरपूर छे. पण अज्ञानी जीव स्वभावनो महिमा समजतो नथी तेथी
स्वभावनुं शरण करतो नथी; तेनी द्रष्टि निमित्तो उपर छे तेथी निमित्तोनी हाजरीमां तेने पोतानुं शरण लागे
छे. बहारना पदार्थोथी तो पोते खाली छे, ने अंतरमां शुद्ध आनंदघन स्वभावथी भरेलो छे, ते ज उपादेय ने
शरणभूत छे. पण एना भान विना, बहारनी क्ष्णिक वस्तुओथी पोताने भरेलो माने छे, पोताने माल वगरनो
माने छे. पण बहारना पदार्थोमांथी कदी जीवनी शांति आवे तेम नथी. वळी कंईक पुण्य परिणाम करे तेनाथी
पोताने भरपूर माने छे क्षणिक परिणाममां ज अर्पाई जईने तेमां ज आत्मानुं सर्वस्व मानी बेठो छे; पण
क्षणिक पुण्य परिणाम रहित आखी वस्तु ज्ञानकंद छे तेने जाणतो नथी.
जीवनो श्रद्धा गुण एवो छे के ज्यां तेनी द्रष्टि पडे त्यां ते पोताने पूरो माने छे. पोतानो मूळ स्वभाव
पूरो छे तेनी श्रद्धा छोडीने अज्ञानीए विकारमां ने परमां पोतापणुं मान्युं छे, तेथी विकारथी ने परथी ज
पोताने भरपूर पूरो माने छे, पण तेनाथी जुदुं स्वरुप छे तेने मानतो नथी. ज्यां ज्यां द्रष्टि मूके छे त्यां त्यां
भर्यो ने पूरो ज माने छे, अधूरो मानतो नथी. अंतरमां पोतानो स्वभाव पूरो छे तेथी ऊंधो पडीने बहारमां
पण पोतानी पूर्णता माने छे. पोते पूरो छे पण द्रष्टिमां गूलांट मारी छे तेथी बहारमां पूर्णता मानी बेठो छे.
बहारमां पूर्णता माननारो पोते ज पूरो छे, पण ज्यां पूर्णता छे त्यां न मानतां,