Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 17

background image
: आसो : २४७५ : आत्मधर्म : २१५ :
ज्यां नथी त्यां पोतापणुं मान्युं छे. श्रीआचार्यदेव कहे छे के तारो शुद्ध स्वभाव ज तारे उपादेय छे, तेनी ज तुं
मान्यता कर, ए सिवाय बीजुं कांई तारे ग्रहण करवा जेवुं नथी. पर्यायमां रागादि होवा छतां ते ग्रहण करवा
जेवा नथी. आवी श्रद्धा करवी ते धर्म छे. रागादिमां आत्मा नथी, छतां त्यां खोटी कल्पना करीने पोतापणुं मानी
रह्यो छे, ते असत् मान्यता ज अधर्म छे. अने जे पोतानो स्वभाव सत् छे तेने ज मान्यतामां स्वीकारवो ते
सत्नी मान्यता छे, ने ते धर्म छे.
अज्ञानी जीव पैसा, बंगलो, स्त्री वगेरेने शरणभूत माने छे, पण ज्यारे वींछी बराबरनो डंख मारे
त्यारे राडेराड पाडे छे; ते वखते पैसा, बंगलो, ने स्त्री वगेरे वस्तुओ एनी ए ज होवा छतां केम शरणभूत
थती नथी? पहेलांं तेमां सुख मानतो हतो ने? क्यां गई तारी सुखनी कल्पना? माटे हे अज्ञानी, तुं समज के
ए कोई पण बहारना पदार्थो तने शरणभूत नथी; तेमां सुखनी जे कल्पना करी हती ते कल्पना पण शरणभूत
नथी. अने जेना फळमां ते संयोग मळ्‌या छे ते पुण्य पण तने शरणभूत नथी. ए बधाय ताराथी बाह्यतत्त्वो छे,
ने तारो एकरूप चैतन्यस्वभाव ते अंतरतत्त्व छे ने ते ज शरणभूत छे. ए स्वभावनी ओळखाण आचार्यदेव
आ गाथामां करावे छे.
आ आत्मा पोताना गुणोथी ने पर्यायोथी पूरो छे; वर्तमान पर्यायमां जे अधुराश देखाय छे तेटलो ते
नथी. पर्यायनुं लक्ष छोडीने द्रव्यस्वभावना लक्षे जे एकरूप स्वभाव जणाय छे ते ज आत्मतत्त्व छे, ने ते ज
उपादेय छे. ज्यां सुधी तेनो अनुभव न थाय त्यां सुधी, तेना लक्षे वारंवार तेनुं श्रवणमनन करवुं जोईए, ने
तेना महिमानुं वारंवार चिंतवन करवुं जोईए. अनादिथी पर्याय जेटलो मानीने पोते तेना महिमामां अटक्यो
छे ने विकारनो ज अनुभव कर्यो छे, तेने बदले स्वभावनो महिमा करे तो विकाररहित शुद्धभावनो अनुभव
थाय छे, ने विकारनो महिमा छूटी जाय छे. सुखी थवानो मार्ग आ ज छे.
आत्मा एकरूप द्रव्य छे. तेना पर्यायमां सात तत्त्वोना विकल्प–रूपी मोजुं ऊठे ते आत्मा नथी. तेम ज
नव पदार्थना रागमिश्रित विचार आवे ते पण आत्मा नथी. ‘हुं जीव छुं’ एवा विकल्पमां अटकवुं ते
अज्ञानबुद्धि छे, केम के ‘हुं जीव छुं, अजीव नथी’ एवा विकल्पो ते आत्मा नथी. विकल्प तो मलिन तरंग छे,
शुभराग छे तेने आत्मा मानवो ते तो चपटी धूळवाळा एक तरंगने ज आखो दरियो मानी लेवा जेवुं छे. ते
विकल्पने बाद करतां जे एकलुं चैतन्य दळ रही जाय छे ते आत्मस्वभाव छे. डाह्यो माणस एक मेला मोजाने
देखीने आखा दरियाने मलिन मानी लेतो नथी, पण ते जाणे छे के आखो दरियो स्वच्छ छे, आ मलिन मोजुं
तेनुं स्वरूप नथी. दरियो ते मलिनताने ऊछाळीने बहार फेंकी देशे. तेम जीव–अजीवादिना जे विकल्प ऊठे छे ते
मलिन मोजां समान क्षणिक विकार छे, आखो आत्मा विकारवाळो नथी. आत्मानो स्वभाव ते विकाररूप थई
गयो नथी. –आम ज्ञानी जाणे छे. ‘हुं जीव छुं ने प्रयत्न वडे मारी मोक्षदशा प्रगट करुं’ एवा विकल्प ऊठे ते
विकार छे, ज्ञानी तेने स्वभावमां प्रवेशवा देता नथी पण भेदज्ञानना बळे तेने जुदा ने जुदा ज राखे छे; तेथी
चैतन्य स्वभावना जोरे ते विकारने ऊछाळीने बहार फेंकी दे छे. पण अज्ञानी तो विकारने अने आत्माने
एकमेक ज जाणे छे तेथी ते कदी विकारथी मुक्त थतो नथी.
पर्यायमां गमे तेवा मलिन भावो होय, ते एक समयपूरता ज छे, ने ते स्वभावनी बहार ज रहे छे,
स्वभावमां प्रवेशता नथी. जेम–कोई माणस लाकडी वडे मेलां मोजांने दरियामां खोसवा प्रयत्न करे, पण ते
मलिनता दरियामां पेसी शके नहि केम के दरियानो स्वभाव एवो छे के ते मेलने पोतामां पेसवा दे नहि; तेम–
आ आत्मा परम पारिणामिक भावरूप चैतन्य समुद्र छे, विकारी अवस्था ते मेलां मोजां समान छे. मेली
अवस्था एक ज समय पूरती छे, ते मलिनता आत्माना स्वभावमां भेगी थती नथी. आत्मानो स्वभाव कदी
विकारी थई जतो नथी. आत्मानो स्वभाव विकारथी छूटा ज रहेवानो छे. ज्ञानी जाणे छे के शुभ–रागना बधा
विकल्पो मारा स्वभावनी चीज नथी, पण अंतरमां जे सदा एकरूप ज्ञायकभाव छे ते ज हुं छुं ने ते ज मारे
आदरणीय छे; तेनी श्रद्धा करीने तेमां ज एकाग्र थवा जेवुं छे. आम पोताना अंतर स्वभावनी प्रतीतिवडे तेमां
ज आदरबुद्धि थाय तेनुं नाम शुद्धभावनुं ग्रहण छे ने ते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते ज ‘नियमसार’ छे.
जेणे एवा शुद्धात्मानुं ग्रहण कर्युं छे ते सम्यग्द्रष्टि छे, ने तेने बंधन थतुं