Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: २१६ : आत्मधर्म : आसो : २४७५ :
नथी. केम के ते जीव बंधने अने आत्माना स्वरूपने जुदा जुदा जाणीने बंधने छोडे छे ने आत्म–स्वभावने ज
ग्रहण करे छे, तेथी तेने बंधन थतुं नथी. ए वात समयसारना बंध अधिकारमां छे. अत्यारे एवुं सम्यग्दर्शन
कई रीते थाय ते वात चाले छे.
आत्मा कोई परनो कर्ता के हर्ता नथी, तेम ज आत्मानो कर्ता के हर्ता कोई नथी. आत्मा पोते परना
अवलंबन रहित छे. परनी अपेक्षा वगरना पोताना सहज ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि ते ज सम्यग्दर्शन छे. विकल्प
वडे आत्मा ग्रहण थतो नथी. विकल्प तो आत्मानी जात नथी. विकल्प रहित आत्मस्वभाव छे ते ज ग्रहण
करवा योग्य छे. आत्मानो जे स्वभाव छे तेने श्रद्धामां मानवो, ज्ञानमां जाणवो ने तेमां एकाग्र थवुं तेनुं नाम
शुद्धात्मानुं ग्रहण छे. श्री समयसार गा. ३८ उपरना प्रवचनोमांथी
[अनुसंधान पान २०७ थी चालु]
आदर छोडीने पोताना ज्ञानस्वरूपनो आदर क्यारे करशे? माटे बधा निकट भव्य जीवोने एक शुद्ध आत्मा ज
उपादेय छे. जे जीव पोताना सहज स्वभावनी सन्मुख थतां बधाय परद्रव्योथी परांग्मुख थई गयो, एटले एक
स्वभावने ज उपादेय राख्यो ने बीजा बधायने बहिरतत्त्वो जाणीने तेनी श्रद्धा छोडी दीधी–ते धर्मी छे.
शुद्धात्माने उपादेय जाणनारा मुनिवरो उत्कृष्ट वैराग्यवंत होय छे, पर द्रव्योथी परांग्मुख होय छे. ए वात करी.
वळी ते मुनिवरो केवा छे? –पंचेन्द्रियना फेलावथी रहित छे ने मात्र शरीरनो ज परीग्रह छे. मुनिने पांच ईन्द्रियो तो
होय छे पण तेनो फेलाव नथी एटले के पांच ईन्द्रियना रस–रूप वगेरे विषयो प्रत्येथी तेमनी परिणति रोकाई गई छे.
तेमने मात्र शरीरनो ज परिग्रह छे. मोरपींछी अने कमंडळ होय छे पण ते पोताना शरीरना रक्षण खातर नथी.
वळी ते मुनिवरोनी बुद्धि स्वद्रव्यमां लीन छे. पहेलांं अज्ञानदशामां परने पोतापणे मानीने अने
रागादिने आत्मानुं स्वरूप मानीने ज्ञान त्यां लीन थतुं हतुं, हवे भेदज्ञानवडे शुद्धात्म स्वभावने ज उपादेय
जाणीने ज्ञानने परद्रव्योनी लीनतामांथी पाछुं खेचीने स्वद्रव्यमां जोडयुं छे अने शुद्धात्मस्वरूपना विशेषं
अनुभव वडे ज्ञानने स्वद्रव्यमां लीन कर्युं छे. –ए रीते जेमणे पोताना ज्ञानने पोतामां ज जोडी दीधुं छे एवा ते
वीतरागी संतो सातमा–छठ्ठा गुणस्थाने आत्मानंदमां झुले छे, क्षणे क्षणे विकल्प तोडीने शुद्ध आत्मानो साक्षात्
अनुभव करे छे. ते मुनिवरोए मिथ्यात्व अने कषायने जीती लीधां छे तेथी तेओ परम जिन छे. अने
स्वद्रव्यमां जोडाएला होवाथी तेओ योगी छे आवा परम जिन योगीश्वरोने एक शुद्धात्मा ज आदरणीय छे,
एना सिवाय बीजा बधा पर द्रव्यो अने परभावो छे ते बहिरतत्त्व छे, ते आदरणीय नथी.
आ गाथामां उपादेयरूप शुद्ध आत्मानुं वर्णन कर्युं छे, अने साथे साथे मुनिदशा केवी होय ने
आसन्नभव्य जीव केवा होय तेनुं पण वर्णन आवी जाय छे. योगीश्वरोने एक शुद्धात्मा ज अंगीकार करवा
योग्य छे–एम मुनिनुं द्रष्टांत लईने आचार्यदेव कहे छे के बधाय आसन्नभव्य जीवोने निज कारणपरमात्मा
सिवाय बीजुं कांई पण अंगीकार करवा जेवुं नथी.
जेम मुनिवरोने एक शुद्ध परमात्मा ज उपादेय छे तेम बधाय आसन्नभव्य जीवोने पोतानो शुद्ध परमात्म
स्वभाव ज उपादेय छे. जेओ शुद्ध परमात्म स्वभावने न जाणे अने तेना सिवाय बीजाने उपादेय माने ते जीवो
आसन्नभव्य नथी पण दूर भव्य छे. नीचली साधक दशामां शुभ के अशुभ भावमां पण जोडाण थतुं होय, छतां
जेओ अत्यंत निकटभव्य छे एवा जीवो अंतर श्रद्धामां एक शुद्धात्मां सिवाय बीजा कोई भावने पोतानुं स्वरूप
मानता नथी तेमने शुद्धात्मानो ज आदर छे ने बीजा बधा भावोनो निषेध छे. साधकनी द्रष्टिनुं जोर शुद्ध
स्वभावमां ज छे. संत–मुनिदशा जेवी आत्मस्थिरता न थई शके तो, हे जीव! श्रद्धा तो आवी ज राखजे के मारे
एक शुद्ध कारण परमात्मा सिवाय बीजुं कांई आदरणीय नथी. जीव जो पोताना शुद्ध स्वभावने आदरणीय
जाणीने तेना श्रद्धा–ज्ञान करशे तो ते तरफना विशेष पुरुषार्थथी तेमां स्थिरता प्रगट करता अशुद्ध भावो टळी जशे
ने मुक्ति थशे, पण जो शुद्धात्मा सिवाय बीजा भावोने आदरणीय जाणशे तो कदी पण शुद्धभाव प्रगटशे नहि.
नाना बाळक पासे सो रूपियानी किंमतनो दागीनो होय, पण जो कोई तेने बे पैसानी किंमतनो पेडो
आपे तो ते दागीनो आपी दे. केम के तेणे दागीनानी किंमत जाणी नथी, ने पेडानी मीठाश लागे छे. तेम
अज्ञानी जीवे पोताना अखंड एक निरपेक्ष स्वभावनो महिमा जाण्यो नथी तेथी ते पर्याय जेटलो ज आत्माने
मानीने आखा स्वभावने भूली जाय छे, तेने रागनी–पुण्यनी मीठाश छे. एक क्षणिक विकल्प आखो आत्मा
वेंची देवो ते अज्ञान छे –दुःख छे–अधर्म छे. अने ‘विकल्प जेटलो हुं नथी, हुं तो विकल्पथी पार सदा एकरूप
रहेनार छुं’ एवा श्रद्धा ज्ञानवडे आखा आत्माने विकारथी जुदो टकावी राखवो ते सम्यग्दर्शन छे–सुख छे–धर्म
छे. ज्यां सुधी पोतानो आखो स्वभाव केवो छे तेनी ओळखाण अने महिमा न करे त्यां सुधी जीवने धर्म थाय
नहि. (श्री नियमसार गा. ३८ उपर पू. गुरुदेवश्रीना व्याख्यानमांथी)