नियमसारनी आ ३८मी गाथामां हेय–उपादेय तत्त्वनुं कथन छे. पोतानो शुद्ध आत्मस्वभाव ज उपादेय
उत्तर:– सहज ज्ञानस्वरूपी जीव तो स्वतत्व छे, ते कांई परद्रव्य नथी. अहीं जीवना शुद्ध स्वभावने
परद्रव्य कह्युं छे. ‘हुं जीव छुं’ एवो विकल्प ते आत्मानुं स्वरूप नथी, तेथी ते परद्रव्य छे, अने हेय छे.
आत्मतत्व ज्ञानस्वरूप छे; हुं जीव छुं’ एवो जीवसंबंधी विकल्प ते आत्मतत्वमां नथी, अने ते विकल्पवडे
आत्मतत्व अनुभवमां आव शकतुं नथी, माटे ते विकल्प हेय छे. जीव पोते परद्रव्य नथी पण जीवतत्व संबंधी
अपेक्षाए जीवतत्वने हेय कह्युं छे–एम समजवुं.
अनुभवातुं नथी, माटे ते हेय छे.
विकल्पमां ज जेनी बुद्धि अटकी छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; ए विकल्प वडे आत्म तत्व अनुभवमां आवी शकतुं नथी,
माटे ते विकल्प हेय छे. विकल्प रहित थतां जे सहज आत्मतत्वनो अनुभव थाय छे ते सहज आत्मतत्व ज
उपादेय छे. अहीं विकल्पमात्रने परद्रव्यमां गणेल छे; पोताना शुद्ध स्वभाव संबंधी विकल्प करवो ते पण
स्वद्रव्यनो स्वभाव नथी.
पण ‘हुं अबंध छुं’ एवो विकल्प पोतानुं स्वरूप नथी, ते परद्रव्य छे, माटे हेय छे.
उत्तर:– संवरतत्वना लक्षे विकल्प थाय छे. संवरतत्त्व अने तेना लक्षे थतो विकल्प ए बंनेने एक
दशा प्रगटती नथी. अहीं एकरूप आत्मस्वभावनुं ज ग्रहण कराववुं छे, तेमां कोई प्रकारना भेदनो के विकल्पनो
स्वीकार नथी. संवर तो एक निर्मळ पर्याय छे. अहीं पर्यायद्रष्टि ज छोडाववी छे, माटे संवरतत्त्व पण हेय छे
अर्थात् तेनुं लक्ष करवा जेवुं नथी. पुण्य–पापने अटकावुं एवा विकल्पथी पुण्य–पाप अटकाता नथी, पण एकदम
आत्मस्वभावना लक्षे ज पुण्य–पाप अटके छे; माटे एकरूप आत्मस्वभाव ज उपादेय छे. आत्मस्वभावना लक्षे
एकाग्र थतां संवर–निर्जराने मोक्ष थई जाय छे.
मोक्षपर्याय उपर जेनुं लक्ष छे तेने कदी मोक्षदशा थती नथी. पर्यायद्रष्टि छोडीने आखा द्रव्य स्वभावने द्रष्टिमां न
स्वीकारे त्यांसुधी धर्म थतो नथी. हुं मोक्ष करुं–एवो विकल्प ते परद्रव्य स्वरूप छे. हुं आत्मा, अने मारो मोक्ष
करुं’ एवा विचार वडे आत्म–