तेनामां ताकात छे. गमे तेवा संयोग वखते समाधान करवानी ताकात आत्मामां छे पण तेनो जेने विश्वास
मिथ्यात्वनो नाश करे तो अल्पकाळे मुक्ति थाय.
न चाले” एवी कल्पनानोय त्रिकाळी स्वभावमां अभाव छे पण एक समयना पर्यायमां तेनो सद्भाव छे.
विकार ते त्रिकाळ स्वभावमां नथी पण अवस्थामां छे. ए विकारी अवस्था वगर अनादिथी एक समय चलाव्युं
नथी, ते ज संसार छे. ए सिवाय बहारना पदार्थोमां संसार नथी. ज्यारे एम शरूआत करे के मारा त्रिकाळ
स्वभावमां परवस्तुनो अभाव छे, ने विकारनो पण अभाव छे, –आवी श्रद्धा थई त्यारे विकार वगर मारे
चाली शके एवो मारो ज्ञानस्वभाव छे–एवुं भान थयुं. एटले विकार वगरना स्वभावनी प्रतीत थई
वगरनो ज्ञानमूर्ति आत्मा त्रिकाळ धु्रव छे तेनो महिमा भासतो नथी. विकार छे ते त्रिकाळस्वभाव नथी पण
क्षणिक विभाव छे. त्रिकाळ स्वभावनी अंतरद्रष्टिथी परिणमवुं ते धर्म छे. अज्ञानी तो माने छे के विकार वगर
मारे चाले नहि, एटले तेने विकारनी रुचि ने त्रिकाळ स्वभावनो अनादर छे ते अधर्म छे, तेने त्रिकाळ
स्वभावना अनादरनुं मिथ्यात्व छे. धर्मीने त्रिकाळ स्वभावनो आदर छे ने क्षणिक विकारनो अनादर छे, तेमने
अल्प शुभाशुभ भाव थाय तेने ते स्वभावथी बहिर भाव जाणे छे, तेथी विकार थाय छतां तेने साची श्रद्धा–
ज्ञानरूप धर्म थाय छे. माटे आत्मार्थीओए त्रिकाळ चैतन्य स्वभावनी रुचि ने प्रतीति करवी जोईए. तेना
विश्वासे स्वभावनो विकास थशे ने विकारनो विनाश थशे.
जेने आत्मकल्याणनी दरकार छे, भवभ्रमणनो डर छे एवा आत्मार्थी सिवाय बीजा
जीवोने आ वात बेसे तेम नथी. आवा मनुष्य अवतारमां आव्यो अने परम दुर्लभ एवी
सत्यवाणी सांभळवानो जोग मळ्यो; जो अत्यारे स्वभावनी रुचिथी आ वात नहि सांभळे
अने नहि समजे तो क्यारे सांभळशे? अनंत काळे पण आवी वात सांभळवा मळवी
मुश्केल छे.
एकतानी श्रद्धा करवी ने पछी ज्ञानने स्वरूपमां स्थिर करीने वीतरागभाव प्रगट करीने
संपूर्ण एकता करवी, ए सिवाय बीजुं कांई करवा जेवुं नथी. आमां ज मोक्षमार्ग अथवा
धर्म जे कहो ते आवी जाय छे. कोई पण परने लीधे ज्ञान खीले एम जेणे मान्युं छे तेणे
राग साथे ज ज्ञाननी एकता करी छे, एवो अज्ञानी जीव दरेक संयोग वखते ज्ञान अने
आत्मानी एकताने तोडे छे, ते अधर्म छे. ज्ञान साथे आत्मानी एकतानी अने रागादिथी
ज्ञाननी एकता वधती जाय छे ने राग तूटतो जाय छे, ते धर्म छे.