Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७५ : आत्मधर्म : २०९ :
मान्यता ते स्व–परनी एकताबुद्धि छे ने ते ज मिथ्यात्व छे.
बे माणसने पुत्रमरणनो संयोग थयो. त्यां एक माणस समाधान करे छे, ने बीजो खेद करीने आकुळता
करे छे. पुत्रमरणनो संयोग होय ते वखते पण जो आत्मा समाधान करवा मागे तो ते समाधान करी शके एवी
तेनामां ताकात छे. गमे तेवा संयोग वखते समाधान करवानी ताकात आत्मामां छे पण तेनो जेने विश्वास
नथी, ते ‘परवगर मारे न चाले’ एम माने छे, ते ज मिथ्याभाव छे. जो एक वार स्वभाव ना भानवडे ते
मिथ्यात्वनो नाश करे तो अल्पकाळे मुक्ति थाय.
स्वयंसिद्ध चैतन्यतत्त्व स्वाधीन छे, ते बीजा पदार्थ वगर ज टकी रह्युं छे–एनो जेने भरोसो नथी ते
चैतन्यनुं ध्यान करवाने पात्र नथी. आत्मामां परवस्तुनो तो त्रिकाळ अभाव ज छे. अने “परवस्तु वगर मारे
न चाले” एवी कल्पनानोय त्रिकाळी स्वभावमां अभाव छे पण एक समयना पर्यायमां तेनो सद्भाव छे.
विकार ते त्रिकाळ स्वभावमां नथी पण अवस्थामां छे. ए विकारी अवस्था वगर अनादिथी एक समय चलाव्युं
नथी, ते ज संसार छे. ए सिवाय बहारना पदार्थोमां संसार नथी. ज्यारे एम शरूआत करे के मारा त्रिकाळ
स्वभावमां परवस्तुनो अभाव छे, ने विकारनो पण अभाव छे, –आवी श्रद्धा थई त्यारे विकार वगर मारे
चाली शके एवो मारो ज्ञानस्वभाव छे–एवुं भान थयुं. एटले विकार वगरना स्वभावनी प्रतीत थई
सम्यग्दर्शन थयुं. हवे विकार थाय तेने पोतानुं स्वरूप माने नहि. अज्ञानीने क्षणिक विकार भासे छे पण विकार
वगरनो ज्ञानमूर्ति आत्मा त्रिकाळ धु्रव छे तेनो महिमा भासतो नथी. विकार छे ते त्रिकाळस्वभाव नथी पण
क्षणिक विभाव छे. त्रिकाळ स्वभावनी अंतरद्रष्टिथी परिणमवुं ते धर्म छे. अज्ञानी तो माने छे के विकार वगर
मारे चाले नहि, एटले तेने विकारनी रुचि ने त्रिकाळ स्वभावनो अनादर छे ते अधर्म छे, तेने त्रिकाळ
स्वभावना अनादरनुं मिथ्यात्व छे. धर्मीने त्रिकाळ स्वभावनो आदर छे ने क्षणिक विकारनो अनादर छे, तेमने
अल्प शुभाशुभ भाव थाय तेने ते स्वभावथी बहिर भाव जाणे छे, तेथी विकार थाय छतां तेने साची श्रद्धा–
ज्ञानरूप धर्म थाय छे. माटे आत्मार्थीओए त्रिकाळ चैतन्य स्वभावनी रुचि ने प्रतीति करवी जोईए. तेना
विश्वासे स्वभावनो विकास थशे ने विकारनो विनाश थशे.
सतनी दुर्लभता : : श्रोतानी पात्रता
आ वात आत्म स्वभावनी छे. कोई अन्य संप्रदायो साथे के लौकिक वातो साथे
तेने जराय मेळ मळे तेम नथी, अने आ वात अन्यत्र ज्यां–त्यांथी मळे तेम नथी. तथा
जेने आत्मकल्याणनी दरकार छे, भवभ्रमणनो डर छे एवा आत्मार्थी सिवाय बीजा
जीवोने आ वात बेसे तेम नथी. आवा मनुष्य अवतारमां आव्यो अने परम दुर्लभ एवी
सत्यवाणी सांभळवानो जोग मळ्‌यो; जो अत्यारे स्वभावनी रुचिथी आ वात नहि सांभळे
अने नहि समजे तो क्यारे सांभळशे? अनंत काळे पण आवी वात सांभळवा मळवी
मुश्केल छे.
भेदविज्ञानसार
जीवनुं कर्तव्य
अहो, धर्मात्मा जीवने जीवनमां करवानुं जो कांई होय तो आत्मा अने ज्ञाननी
संपूर्ण एकता ज करवी, ते ज करवानुं छे. पहेलांं रागथी भिन्नता ने. ज्ञान साथे आत्मानी
एकतानी श्रद्धा करवी ने पछी ज्ञानने स्वरूपमां स्थिर करीने वीतरागभाव प्रगट करीने
संपूर्ण एकता करवी, ए सिवाय बीजुं कांई करवा जेवुं नथी. आमां ज मोक्षमार्ग अथवा
धर्म जे कहो ते आवी जाय छे. कोई पण परने लीधे ज्ञान खीले एम जेणे मान्युं छे तेणे
राग साथे ज ज्ञाननी एकता करी छे, एवो अज्ञानी जीव दरेक संयोग वखते ज्ञान अने
आत्मानी एकताने तोडे छे, ते अधर्म छे. ज्ञान साथे आत्मानी एकतानी अने रागादिथी
भिन्नतानी श्रद्धाथी ज्ञानी जीवने गमे तेवा प्रसंग वखते पण समये समये स्वभावमां
ज्ञाननी एकता वधती जाय छे ने राग तूटतो जाय छे, ते धर्म छे.
भेदविज्ञानसार