: १६: आत्मधर्म : कारतक: २००६
श्री परमात्मप्रकाश – प्रवचनो
(अंक ७२ थी चालु) वीर सं. २४७३ भादरवा सुद प: शुक्रवार (दशलक्षणीपर्वनो उत्तमक्षमादिन)
[९१] परमात्म स्वभावनो उपदेश सांभळवा शिष्यनी विनंती :– आजे उत्तमक्षमानो दिवस छे, ते
उत्तमक्षमानुं फळ परमात्म–प्रकाश छे. अत्यारे परमात्म–प्रकाशनुं व्याख्यान चाले छे. प्रभाकरभट्ट श्रीगुरु पासेथी
परमात्म स्वभावनो उपदेश सांभळवा मागे छे. तेथी पोताना श्रीगुरु प्रत्ये विनंती करे छे–
चउगइ दुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ।
चउगइ दुक्ख विणास यरु कहहु पसाएँ सो वि ।। १०।।
भावार्थ :– श्री प्रभाकरभट्ट परमात्मस्वभाव समजवानी झंखनाथी श्री गुरुने विनवे छे के, देव–मनुष्य–तिर्यंच
अने नरक ए चारे गतिना दुःखोथी तप्तायमान जीवने चार गतिना दुःखनो नाश करवावाळो एवो जे कोई चिदानंद
परमात्मस्वभाव छे ते कृपा करीने हे श्री गुरु आप कहो.
[९२] शिष्य केवो उपदेश ईच्छे छे? :– अहीं मागणी परमात्म स्वभावनी ज करी छे. तेने स्वभावनी ज रुचि छे, तेथी
आखो आत्मा ज जाणवानी मागणी करी छे. ए चिदानंद शुद्धस्वभाव भव्यजीवोना संसारनो नाश करीने पूर्ण परमात्मदशा
देनार छे. आत्मानो परमात्मस्वभाव सर्व विभावथी रहित छे, ते स्वभावनी ओळखाणपूर्वक वीतराग निर्विकल्प समाधिना
बळथी निकट भव्यात्माओना चार गतिना दुःखनो नाश थाय छे, ने तेने परमात्मदशानी प्राप्ति थाय छे. निजस्वरूपनी
परमसमाधिमां लीन थतां वीतरागी परमानंद सुखामृतथी आत्मा संतुष्ट थाय छे, एवी समाधिना बळथी महामुनिओ
निर्वाणदशा पामे छे. ए रीते सर्व प्रकारे ध्यान करवा योग्य परमात्मस्वभाव छे. ते स्वभावने नहि जाणवाथी ज आ जीव
अनादिकाळथी संसारमां भटकी रह्यो छे.
–एवा परमात्मस्वभावनो उपदेश तमारा प्रसादथी सांभळवा हुं चाहुं छुं. माटे हे प्रभो! कृपा करीने एवा
परमात्मानुं स्वरूप मने कहो! शिष्य कोई व्यवहारनो प्रश्न नथी पूछतो, दयाभक्तिनी वात नथी करतो पण शुद्ध
आत्मस्वभाव जाणवानी ज भावना करे छे, तेथी श्रीगुरुने कहे छे के प्रभो! एवा परमात्मानुं स्वरूप कृपा करीने मने
जणावो. ।। १०।।
ए रीते प्रभाकरभट्ट नामना संसारथी भयभीत शिष्ये परमात्मस्वभाव जाणवा माटे श्रीयोगीन्द्राचार्यदेव पासे
विनयपूर्वक तेना उपदेशनी विनंती करी, ते संबंधी ८–९–१० ए त्रण गाथामां कह्युं. पात्र शिष्यमां केवी लायकात होय
छे ते पण तेमां आवी जाय छे.
[९३] श्रीगुरु शिष्यनी विनंतीनो उत्तर आपे छे :– हवे, प्रभाकरभट्टनी विनंती सांभळीने श्रीयोगीन्द्रदेव
आत्मानुं स्वरूप समजाववा माटे त्रण प्रकारना आत्मानुं वर्णन करे छे :–
पुणु पुणु पणविवि पंचगुरु भावें चित्ति धरेवि।
भट्ट पहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि।। ११।।
भावार्थ :– श्री योगीन्द्रदेव कहे छे के हे प्रभाकरभट्ट! हुं त्रण प्रकारना आत्मानुं वर्णन करुं छुं; तेने, फरी फरी
पंचपरमेष्ठीओने प्रणमीने अने निर्मळ भावोथी ज्ञानमां धारण करीने, तुं निश्चयथी सांभळ.
[९४] उपदेश कई रीते सांभळवो? :– श्री योगीन्द्रदेव कहे छे के, हे शिष्य, तुं निश्चयथी सांभळ. निश्चय जे
शुद्धात्मस्वभाव तेनी द्रष्टिथी सांभळजे, पण व्यवहार, राग के वाणीना लक्षे सांभळीश नहि. शिष्ये एम कह्युं हतुं के
प्रभो, मने परमात्मानो स्वभाव संभळावो! त्यारे श्रीगुरु कहे छे के हे प्रभाकरभट्ट तुं निश्चयथी सांभळ! ‘हे
प्रभाकरभट्ट! हुं कहुं छुं ते तुं सांभळ! ’ एम कहीने आचार्यदेवे शिष्यने पण पोतानी साथे भेळवी दीधो छे, शिष्य पण
अवश्य समजी जवानो छे. आ रीते गुरु–शिष्यना भावनी संधि छे.
[९५] प्रभाकरभट्ट शिष्यनी लायकात :– आ ग्रंथमां पहेली सात गाथाद्वारा मांगळिक कर्या बाद तरत ज (८मी
गाथामां) प्रभाकरभट्टनुं नाम आवी गयुं छे; ने त्यारपछी उत्तर आपतां आ गाथामां पण ‘भट पहायर णिसुणि
तुहुँ’ अर्थात् हे प्रभाकरभट्ट! तुं सांभळ–एम संबोधन कर्युं छे. अने ए रीते वकता तथा