Atmadharma magazine - Ank 073
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक: २००६ आत्मधर्म : १७ :
श्रोतानो मेळ कर्यो छे. ग्रंथकर्ता पोते संतमुनि छे, छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने आत्मानुभवदशामां वर्ते छे, अने
तेमने विकल्प ऊठतां मूळ गाथामां प्रभाकरभट्टनुं नाम लखाई गयुं छे; शिष्यनी समजवानी खास पात्रता
वगर आचार्यदेवना श्रीमुखथी तेनुं नाम आवे नहि.
[९६] पात्र शिष्य केवा होय? :– हे प्रभाकर भट्ट! जेवो शुद्धात्मानो प्रश्न तें पूछयो छे तेवो ज प्रश्न पूर्वे
भरतचक्रवर्ती वगेरे श्रेष्ठ भव्य–जीवोए पूछयो हतो. समवसरणमां जईने महाश्रेष्ठ भव्यात्माओ दिव्यध्वनि
सांभळीने पछी सर्व प्रकारे ध्याववा योग्य एवा शुद्धात्मानुं स्वरूप पूछता हता; अने तेना उत्तरमां श्रीभगवाने
कह्युं हतुं के आत्मस्वभावना ज्ञान सिवाय आ जगतमां बीजुं कांई उत्तम नथी. पोतानो जे शुद्धात्मस्वभाव छे
तेनुं ज्ञान ते ज सर्वनो सार छे. शुद्धात्मस्वभावनुं ज्ञान कहेतां तेमां दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे आवी जाय छे.
पूर्वे भरतचक्रवर्ती वगेरे महान श्रोताओ थया तेमांथी भरतचक्रवर्तीए श्रीऋषभदेवभगवाने आ प्रश्न पूछयो
हतो. सगरचक्रवर्तीए श्रीअजितनाथने, रामचंद्रजीए देशभूषण, कुलभूषण तथा सकलभूषण केवळीने,
पांडवोए श्रीनेमिनाथभगवानने अने श्रेणीक राजाए श्रीमहावीर स्वामीने ए ज प्रश्न पूछयो हतो.
ए श्रोताओ केवा हता? तेओने भेदाभेदरत्नत्रयनी भावना प्रिय हती, अने संसारना दुःखथी तेओ भयभीत
हता. ते भव्यजीवोए भगवानने पूछयुं ते वखते भगवाने जे प्रकारे आत्मस्वरूप कह्युं हतुं तेवुं ज हुं पण
जिनवाणी अनुसार तने कहुं छुं. जेम पूर्वे महापुरुषोए आ शुद्धात्मानुं स्वरूप पूछयुं हतुं तेम हे प्रभाकर
भट्ट! तें पण ते ज स्वरूप पूछयुं छे. ने जेम ते पुरुषो शुद्धात्मस्वरूप पामी गया हता तेम तुं पण शुद्धात्माने
पामी जईश. –एम अहीं मांगळिक कर्युं छे. दरेक मुमुक्षु श्रोताजनोए पोते ज प्रभाकरभट्ट समान छे–एम
समजीने, प्रभाकरभट्टनी जेम पोते पण शुद्धात्मस्वरूप समजवानी जिज्ञासा करीने श्रवण करवुं जोईए.
बहिरात्मा, अंतरात्मा ने परमात्मा एम त्रण प्रकारना आत्मानुं स्वरूप समजवानुं प्रयोजन ए छे के पूर्ण
परमात्मस्वभावनी ओळखाण वडे अंतरात्मदशा प्रगट करवी, ने बहिरात्मदशा छोडवी. बहिरात्मपणुं सर्वथा
हेय छे; परमात्मपणुं उपादेयरूप छे अने अंतरात्मपणुं तेनुं साधन छे.
[९७] उत्तम मार्जवधर्म :– अत्यारे दसलक्षणीपर्वना मंगळ दिवसो चाले छे. आजे मार्जवधर्म एटले के
समयग्ज्ञानपूर्वकनी निर्मानतानो दिवस छे, ते मार्जवधर्मनुं फळ आत्मानी परमात्मदशा छे. अहीं
परमात्मप्रकाशमां चिदानंद परमात्मा केवो छे तेनुं स्वरूप कहे छे. शिष्ये कोई व्रत–पचख्खाणनी मागणी नथी
करी. पण सीधी चिदानंदपरमात्मस्वरूपनी ज मागणी करी छे. शिष्यनी पात्रता छे तेथी गाथामां पण तेनुं नाम
आवी गयुं छे. गाथामां खास तेनुं नाम लईने आचार्यदेवे कह्युं छे के–हे प्रभाकरभट्ट, तुं निश्चयपूर्वक सांभळ!
[९८] मोक्षनुं कारण रत्नत्रय छे :– परमात्मा, अंतरात्मा ने बहिरात्मा–ए त्रण प्रकारना आत्मामां निज
शुद्ध परमात्मा ज उपादेय छे. मोक्षनुं मूळ कारण रत्नत्रय छे. ते रत्नत्रय निश्चय अने व्यवहाररूप छे.
केवळज्ञान न थाय त्यां सुधी बंने प्रकार साथे होय छे, नित्यमुक्त अबंधस्वरूप हुं छुं–एवी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन
छे, स्वसंवेदन ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे, अने तेमां वीतराग–निर्विकल्प स्थिरता ते सम्यक्चारित्र छे, ए त्रणे
आत्माना ज आश्रये छे, तेथी ते निश्चय अभेदरत्नत्रय छे; तेमां कोई पण परनी अपेक्षा नथी; अने ए
रत्नत्रयनी एकता ज मोक्षनुं कारण छे.
[९९] अभेद रत्नत्रय अने भेद रत्नत्रय :– ज्यां एवा अभेद रत्नत्रय होय त्यां रागदशामां भेद रत्नत्रय
होय छे, भेद रत्नत्रय पराश्रये छे, राग छे, आस्रव छे. देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प, नवतत्त्वनी श्रद्धानो
विकल्प, आगमनुं ज्ञान अने संयमभावनो विकल्प ए व्यवहाररत्नत्रय छे अर्थात् भेद रत्नत्रय छे. भेदरहित
अभेदस्वभावने गण्यो होय त्यारे ज आ भेदरूप व्यवहार होय छे. निश्चयरत्नत्रय ज खरेखर मोक्षनुं कारण छे,
व्यवहाररत्नत्रयने मोक्षनुं कारण उपचारथी कहेवाय छे. साधकजीवने ते व्यवहाररत्नत्रयरूप रागनो निषेध वर्ते
छे, तेथी स्वभावना आश्रये ते रागनो अल्पकाळे अभाव करीने रत्नत्रयनी पूर्णता करीने परमात्मदशा प्रगट
करशे. ए रीते खरेखर तो व्यवहाररत्नत्रयरूप रागनो अभाव थईने परमात्मदशा थाय छे; पण साधकदशामां
निश्चयरत्नत्रयनी साथे व्यवहाररत्नत्रय पण होय छे, तेथी उपचारथी तेने पण मोक्षमार्ग