मुणि सण्णाणें णाणमउ जो परमप्प सहाउ।।
परिपूर्ण स्वभाव छुं. ए परिपूर्ण परमात्मस्वभाव ज ध्यान करवा योग्य छे.
रागवाळुं स्वसंवेदन ज्ञान पण होय छे. ज्ञानीओने शब्द, रूप, रस वगेरे परद्रव्योने जाणती वखते पण
स्वसंवेदन ज्ञान तो होय छे, पण ते रागरहित नथी. शुद्धात्माना आश्रये जे रागरहित स्वसंवेदन ज्ञान थाय ते
ज वीतरागी स्वसंवेदन ज्ञान छे. परना लक्षे ज्ञान थाय ते रागवाळुं छे, तेमां आत्मानी शांतिनुं विशेष वेदन
नथी. रागना अवलंबन वगर जेटलुं स्वरूपसंवेदन थयुं तेटलुं वीतरागीवेदन छे. एवुं अंशे वीतरागी
आत्माश्रित स्वसंवेदनज्ञान चोथा गुणस्थाने गृहस्थने पण होय छे, परंतु त्यां राग वर्ततो होवाथी तेने
वीतरागी संवेदन कह्युं नथी; जेटलुं रागरहित स्वसंवेदन थयुं छे तेटलुं तो स्वसंवेदन सर्व प्रसंगे तेने वर्ते ज छे,
पण त्यां हजी विशेष रागरहित स्वसंवेदन नथी. सातमां गुणस्थाने बुद्धिपूर्वकनो राग टाळीने घणुं विशेष
रागरहित स्वसंवेदन होय छे, तेने वीतरागी संवेदन जाणवुं. चोथा गुणस्थानवाळाने पण जेटलुं स्वसंवेदन छे
तेटलुं तो रागरहित ज छे, पण त्यां हजी विशेष राग टळ्यो नथी. चोथा–पांचमां ने छठ्ठा गुणस्थाने स्वसंवेदन
ज्ञान होवा छतां ते भूमिकामां राग पण होय छे, माटे त्यां सरागस्वसंवेदन ज्ञान कहेवाय छे. अने बुद्धिपूर्वकनो
राग विकल्प तोडीने स्वरूप संवेदन ज्यारे वर्ततुं होय त्यारे वीतरागी निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान कहेवाय छे,
तेनी मुख्यता सातमा गुण स्थानथी छे. क्यारेक क्यारेक चोथा–पांचमा गुणस्थाने पण बुद्धिपूर्वकनो राग तूटीने
निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
अंतरात्मदशा–साधकदशा प्रगटे छे ते दशा चोथा गुणस्थानथी शरू थईने बारमा गुणस्थान सुधी होय छे.
गुणस्थान अनुसार स्वसंवेदन वधतुं जाय छे अने कषाय टळतो जाय छे; ते अहीं बतावे छे.
सम्यग्ज्ञान तो छे पण हजी त्रण कषाय चोकडी बाकी छे तेथी व्रतादिभाव प्रगट्या नथी. रागरहित
लीनतावडे अकषायी शांतिनुं वेदन थाय ते व्रत छे, ते पांचमुं गुणस्थान छे. व्रतनुं प्रयोजन कांई कषायनी मंदता
नथी, कषायनी मंदता तो अभव्य पण करे छे; मंदकषायने ज जे व्रत तपनुं प्रयोजन माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे;
व्रतादिनो जे विकल्प आवे तेने, स्वरूपनी शांतिना