Atmadharma magazine - Ank 073
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : कारतक: २००६
कहेवामां आव्यो छे. खरो मोक्षमार्ग तो एक निश्चयरत्नत्रय ज छे. : ११ :
[१००] त्रण प्रकारना आत्मा जाणीने शुं करवुं? :– हवे आत्मानी त्रण दशा बतावीने कहे छे के हे
प्रभाकर भट्ट! तुं बहिरात्मभावने छोडीने स्वसंवेदनज्ञानरूप अंतरात्मा थईने परमात्मस्वभावनुं ध्यान कर.
अप्पा ति विहु मुणोवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ।
मुणि सण्णाणें णाणमउ जो परमप्प सहाउ।।
१२।।
भावार्थ :– हे शिष्य! त्रण प्रकारना आत्माने जाणीने बहिरात्मस्वरूप मूढभावने तुं तुरत ज छोड अने
स्वसंवेदनज्ञानथी अंतरात्मा थईने परमात्मस्वभावने जाण!
[१०१] पूर्णस्वभाव ज ध्यान करवा योग्य छे :– दया–व्रतादि भाव थाय के हिंसादि भाव थाय ते भावो
आत्मा नथी, माटे तेनी साथेनी एकत्वबुद्धि छोड. अने शुद्ध चिद्रूप आत्माना स्वसंवेदन वडे एम जाण के हुं
परिपूर्ण स्वभाव छुं. ए परिपूर्ण परमात्मस्वभाव ज ध्यान करवा योग्य छे.
[१०२] वीतरागी स्वसंवेदन अने सराग स्वसंवेदन :– अहीं वीतरागभावरूप स्वसंवेदनज्ञानथी
परमात्मस्वरूपनुं ध्यान करवानुं कह्युं; त्यां ‘वीतराग’ एवुं विशेषण स्वसंवेदन ज्ञानने लगाडयुं छे. केमके
रागवाळुं स्वसंवेदन ज्ञान पण होय छे. ज्ञानीओने शब्द, रूप, रस वगेरे परद्रव्योने जाणती वखते पण
स्वसंवेदन ज्ञान तो होय छे, पण ते रागरहित नथी. शुद्धात्माना आश्रये जे रागरहित स्वसंवेदन ज्ञान थाय ते
ज वीतरागी स्वसंवेदन ज्ञान छे. परना लक्षे ज्ञान थाय ते रागवाळुं छे, तेमां आत्मानी शांतिनुं विशेष वेदन
नथी. रागना अवलंबन वगर जेटलुं स्वरूपसंवेदन थयुं तेटलुं वीतरागीवेदन छे. एवुं अंशे वीतरागी
आत्माश्रित स्वसंवेदनज्ञान चोथा गुणस्थाने गृहस्थने पण होय छे, परंतु त्यां राग वर्ततो होवाथी तेने
वीतरागी संवेदन कह्युं नथी; जेटलुं रागरहित स्वसंवेदन थयुं छे तेटलुं तो स्वसंवेदन सर्व प्रसंगे तेने वर्ते ज छे,
पण त्यां हजी विशेष रागरहित स्वसंवेदन नथी. सातमां गुणस्थाने बुद्धिपूर्वकनो राग टाळीने घणुं विशेष
रागरहित स्वसंवेदन होय छे, तेने वीतरागी संवेदन जाणवुं. चोथा गुणस्थानवाळाने पण जेटलुं स्वसंवेदन छे
तेटलुं तो रागरहित ज छे, पण त्यां हजी विशेष राग टळ्‌यो नथी. चोथा–पांचमां ने छठ्ठा गुणस्थाने स्वसंवेदन
ज्ञान होवा छतां ते भूमिकामां राग पण होय छे, माटे त्यां सरागस्वसंवेदन ज्ञान कहेवाय छे. अने बुद्धिपूर्वकनो
राग विकल्प तोडीने स्वरूप संवेदन ज्यारे वर्ततुं होय त्यारे वीतरागी निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान कहेवाय छे,
तेनी मुख्यता सातमा गुण स्थानथी छे. क्यारेक क्यारेक चोथा–पांचमा गुणस्थाने पण बुद्धिपूर्वकनो राग तूटीने
निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
पोताना स्वसंवेदन वडे मिथ्यात्व टाळीने सम्यग्ज्ञान प्रगट करवुं ते ज परमात्मा थवानो उपाय छे, अने
ए ज जीवनुं प्रयोजन छे.
दसलक्षणी पर्वनो उत्तम मार्दवदिन वीर सं. २४७३. भादरवा सुद ७ रविवार
[१०३] अंतरात्म दशानुं स्वरूप, ने व्रतनुं प्रयोजन :– आजे दसलक्षणी पर्वनो त्रीजो दिवस छे; एने
उत्तम मार्दव धर्मनो दिवस कहेवाय छे, तेना फळरूप परमात्मदशा छे.
अहीं त्रण प्रकारना आत्मानुं वर्णन चाले छे. तेमां रागादिथी लाभ माननार जीव बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि
छे, तेने स्वसंवेदन ज्ञान जरापण नथी; एवी बहिरात्मदशा सर्वथा त्याजय छे. स्वसंवेदन ज्ञान प्रगटतां
अंतरात्मदशा–साधकदशा प्रगटे छे ते दशा चोथा गुणस्थानथी शरू थईने बारमा गुणस्थान सुधी होय छे.
गुणस्थान अनुसार स्वसंवेदन वधतुं जाय छे अने कषाय टळतो जाय छे; ते अहीं बतावे छे.
चोथा गुणस्थानने अव्रती सम्यग्द्रष्टि जीवने अंशे स्वसंवेदन ज्ञान प्रगट्युं छे, तेथी अनंतानुबंधी
कषाय टळी गयो छे; जेम बीजनो चंद्र प्रगटे तेम स्वसंवेदनज्ञान प्रगट्युं छे, तेटली आत्मशांति वेदाय छे. त्यां
सम्यग्ज्ञान तो छे पण हजी त्रण कषाय चोकडी बाकी छे तेथी व्रतादिभाव प्रगट्या नथी. रागरहित
ज्ञायकस्वभावनुं भान–अनुभव थतां सम्यग्दर्शन प्रगटे छे, ते चोथुं गुणस्थान छे. त्यार पछी विशेष स्वरूप
लीनतावडे अकषायी शांतिनुं वेदन थाय ते व्रत छे, ते पांचमुं गुणस्थान छे. व्रतनुं प्रयोजन कांई कषायनी मंदता
नथी, कषायनी मंदता तो अभव्य पण करे छे; मंदकषायने ज जे व्रत तपनुं प्रयोजन माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे;
व्रतादिनो जे विकल्प आवे तेने, स्वरूपनी शांतिना