सम्यग्द्रष्टिने एवी मान्यता नथी के हुं व्रतादिना विकल्प करुं तो अकषाय भाव प्रगटे, परंतु स्वरूपनी लीनताथी
अकषायदशा प्रगटे छे. आवी भावना होवा छतां व्रतादिनो शुभविकल्प ऊठे छे; पण तेनी भावना नथी;
स्वरूपनी शांतिमां आगळ वधवानी भावना छे त्यां व्रतादिनो विकल्प थई जाय छे, तेने व्यवहार कहेवाय छे. ते
व्यवहारनय वच्चे आव्या विना रहेतो नथी, पण ज्ञानीने तेनो खेद छे. ज्यां व्रतादिना शुभविकल्पनी पण होंश
नथी तो पछी विषय भोग वगेरेनी अशुभ लागणीनी होंश तो ज्ञानीने होय ज केम?
तेनुं प्रयोजन स्थिरताने टकावी राखवानुं छे. परमार्थे तो शुद्धस्वभावना आश्रये ज स्थिरता टकी रहे छे. पण
द्रष्टिपूर्वकनो जे शुभ विकल्प छे ते अशुभथी बचावे छे ए अपेक्षाए तेने पण स्थिरतानुं कारण उपचारथी कह्युं
छे, सम्यग्दर्शननुं स्वरूप पण ओळख्युं न होय ते व्रतादिने क्यांथी ओळखे? चोथा–पांचमा गुणस्थाननो अने
मुनिदशानो मार्ग पण जेणे यथार्थ जाण्यो न होय तेने तेवी दशा क्यांथी होय?
चोकडीनो अभाव थयो छे तेथी त्यां विशेष स्वसंवेदन ज्ञान छे. छतां त्यां मुनिदशा जेटली आत्मशांति नथी.
आपणे राग करवो जोईए” एम माननार तो मिथ्याद्रष्टि छे. घणी स्वरूपस्थिरता प्रगटी छे पण हजी
वीतरागसंयमदशा नथी अने सहेज विकल्प वर्ते छे तेनुं नाम सरागसंयम छे. सरागसंयममां जे रागनो भाग
छे तेनो मुनिने आदर नथी. चोथा–पांचमा गुणस्थान पछी, पहेलांं तो सातमुं गुणस्थान आवे छे अने पछी
छठ्ठुं आवे छे.
वीतरागता प्रगटी नथी तेथी उपयोग सहजे बळे छे, त्यां संजवलन कषाय बाकी छे. वंद्य–वंदकनो के आहार–
विहारनो विकल्प नथी, ‘हुं आत्मा छुं, के हुं मुनि छुं’ एवो विकल्प पण नथी, शुद्ध चैतन्यनो भिन्न अनुभव
ज वर्ते छे. छठ्ठुं गुणस्थान अल्पकाळ रहे छे, पछी तरत सातमुं आवे छे. वारंवार छठ्ठुं–सातमुं गुणस्थान
आव्या ज करे एवी मुनिदशा छे. घणा वर्षो छठ्ठुं गुणस्थान रहे पण सातमुं न आवे–एवुं मुनिदशानुं स्वरूप
ज नथी. ‘व्यवहारे छठ्ठुं गुणस्थान छे. पण सातमुं आवतुं नथी’ एम होय शके ज नहि. गुणस्थानमां निश्चय–
व्यवहार शुं? गुणस्थान पोते ज व्यवहार छे. व्यवहारथी छठ्ठुं गुणस्थान छे ने निश्चयथी चोथुं छे–एम बे
प्रकार गुणस्थानमां होय शके ज नहि.
गुणस्थाननी वात करवी होय त्यारे ‘व्यवहारथी चोथुं–पांचमुं गुणस्थान छे ते निश्चयथी पहेलुं छे’ –एम
कहेवाय नहि, केमके गुणस्थान तो करणानुयोगनो विषय छे, अने ते पोते ज व्यवहार छे; –ज्यां सातमा
गुणस्थानने योग्य निर्विकल्प अनुभवदशा वारंवार न आवती होय त्यां छठ्ठुं गुणस्थान के मुनिदशा होय ज न
शके. सातमा गुणस्थाने घणुं स्वसंवेदन ज्ञान वधी गयुं छे.