Atmadharma magazine - Ank 074
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४७६ : २९:
ने आडाअवळा थता होय तो उपर कहेली अष्टांग–निमित्तत्ताबुद्धि कोई जीवोने होई शके ज नहीं. अने अष्टांग–
निमित्तत्ताबुद्धि ते मति–श्रुतज्ञान छे एटले मति–श्रुतज्ञाननो ज अभाव ठरशे.
अवधिज्ञान
उत्कृष्ट अवधिज्ञान असंख्यात लोक प्रमाण अतीत अने अनागतकाळने जाणे छे. रूपी पुद्गलो तेमज ते
पुद्गलना संबंधवाळा संसारी जीवना विकारी भावोने अवधिज्ञान प्रत्यक्ष जाणे छे.
हवे जो रूपी पुद्गलो तेमज जीवना विकारी भावो क्रमबद्धपर्यायरूपे परिणमता न होय, ने आडाअवळा
गमे तेम परिणमता होय तो, अवधिज्ञान रूपीद्रव्योना तेमज जीवना विकारीभावोना असंख्यात लोक प्रमाण
अतीत अने अनागतकाळना पर्यायोने वर्तमानमां कई रीते जाणी शके? अवधिज्ञाने जे रीते जाण्युं ते ज रीते
जो पदार्थोनी क्रमबद्ध अवस्था न थाय तो अवधिज्ञान ज सिद्ध थई शकशे नहीं. स्वभावपर्याय हो के
विभावपर्याय हो, ते बधा क्रमबद्ध ज थाय छे.
मन:पर्ययज्ञान
पोतानां तथा परनां जीवित–मरण, सुख–दुःख, लाभ–अलाभ वगेरेने विपुलगति मनःपर्ययज्ञान जाणे
छे, तेमज व्यक्तमन के अव्यक्तमनथी चिंतवन करेला, नहि चिंतवेला, के आगळ जतां जेनुं चिंतवन करशे
एवा सर्व प्रकारना पदार्थोने पण ते ज्ञान जाणे छे. काळ अपेक्षाए आ ज्ञान जघन्यपणे सात–आठ भव
आगला–पाछला जाणे, अने उत्कृष्टपणे असंख्यात भव आगला–पाछला जाणे. भविष्यना जीवित–मरण,
लाभ–अलाभ, वगेरे जो निश्चित न होय तो ज्ञान तेने क्यांथी जाणे?
केवळज्ञान
केवळज्ञान सर्वे द्रव्यो–गुणो अने तेमना त्रिकाळवर्ती अनंतानंत पर्यायोने अक्रमे एक काळे जाणे छे. आ
ज्ञान सहजेपणे (ईच्छा विना तेमज उपयोगने पर सन्मुख वाळ्‌या विना) सर्व ज्ञेयोने जाणे छे. केवळज्ञान ते
पूर्ण ज्ञान छे ने तेमां संपूर्ण ज्ञेयो जणाय छे. लोकालोक करतां पण अनंतगणा ज्ञेयो होय तो तेने पण जाणी ले
एवुं दिव्य सामर्थ्य केवळज्ञानमां छे.
आ पांचे प्रकारना सम्यग्ज्ञाननुं स्वरूप एम बतावे छे के दरेक द्रव्यना अनादि अनंतकाळना समस्त पर्यायो
क्रमबद्ध थाय छे, ते आडाअवळा थता नथी अने तेना क्रमने फेरववा कोई समर्थ नथी. खरेखर आमां आत्माना
ज्ञायकभावनो निर्णय आवे छे, अने ज्ञायकभावनो निर्णय ते ज सम्यक् पुरुषार्थ छे. जीवना यथार्थ पुरुषार्थ वगर आ
निर्णय थई शकतो नथी. जीव ज्यारे आवो निर्णय करे त्यारे तेने पर पदार्थोमां कांई पण फेरफार करवानी मिथ्याबुद्धि
रहेती नथी; विश्वना बधा पदार्थो तेना स्वभाव प्रमाणे क्रमबद्ध ज थाय छे एटले हुं तेमां कांई पण फेरफार करी शकतो
ज नथी आवो पोताना ज्ञानमां निर्णय थतां, ‘पर पदार्थोनुं शुं थाय छे?’ ते तरफ लक्ष करवानुं रहेतुं नथी, एटले तेनो
पुरुषार्थ पोताना ज्ञानस्वभाव तरफ ज वळे छे. अने पोतामां पण, पर्यायबुद्धि टळीने द्रव्यद्रष्टि थाय छे. “जो बधुं ज
नियमबद्ध–क्रमसर थाय छे, अने जीव तेमां कांई ज फेरफार करी शकतो नथी, तो जीवनो पुरुषार्थ रहेतो नथी” एम
माननारने, क्रमबद्धपर्यायोने जाणनार जे पोतानो ज्ञायकस्वभाव छे तेनी प्रतीति नथी. बधा पदार्थोमां क्रमबद्ध
परिणमन थाय छे तेनो हुं जाणनार छुं–एवो जे ज्ञायकभाव ते ज परम पुरुषार्थ छे. परमां कोई फेरफार करी शके एवो
आत्मानो पुरुषार्थ छे ज नहीं.
जेओने परनी पटलाई करवी छे, ‘परनुं हुं करुं, परनुं हुं करुं’ एवा मिथ्या अहंकारथी दुनियाना पदार्थो साथे
बाथ भीडवी छे, समाजनी व्यवस्था करवाना अभिमानमां जेमनी बुद्धि रोकाई गई छे अने पर साथेना संबंधथी
छूटीने स्वभाव तरफ जेमने वळवुं नथी एवा जीवोने उपर्युक्त वस्तुस्वभावनी वात सांभळतां एम थई जाय छे
के– ‘अरेरे! शुं आत्मा कोईनुं कांई ज न करी शके? आत्मा परमां कांई फेरफार न करी शके? –तो तो आत्मा पुरुषार्थ
रहित, निरुद्यमी अने निष्क्रिय थई जशे!’ एवा जीवोने परपदार्थनुं करवानो अहंकार करवो–ते ज पुरुषार्थ भासे
छे, पण ते अहंकाररहित वीतरागी ज्ञायकभाव प्रगट करवो–ते परम पुरुषार्थ छे–एम तेओ जाणता नथी. जीवनो
पुरुषार्थ पोतामां ज होय, पण परमां ते कांई ज करी शके नहीं. आवुं जेने भान नथी ते जीवोनी द्रष्टि पर तरफथी,
निमित्त तरफथी; शरीरनी क्रिया तरफथी, कर्मना उदय तरफथी, व्यवहार तरफथी, पुण्य तरफथी के पर्याय तरफथी कदी
खसती नथी अने ज्ञानस्वभावीनी स्वद्रव्य तरफ तेमनी द्रष्टि वळती नथी; ए रीते तेमने वस्तुस्व–