ज्ञानस्वभावनी प्रतीत नथी. क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीतमां ज खरुं ज्ञान अने खरो पुरुषार्थ छे, ए प्रतीत वगर
परनी पटलाई छूटे नहि ने स्वभावमां ज्ञान ठरे नहीं एटले अज्ञान टळे नहीं.
समाजव्यवस्था सरखी नथी माटे जीवो दुःखी छे, समाजना कार्यो अने समाजनी व्यवस्थामां फेरफार करवो ते
आपणा पुरुषार्थना हाथमां छे.” –जो वस्तुना क्रमबद्धपर्यायनी यथार्थ प्रतीत थाय तो ए बधी मिथ्या
भ्रमणाओ दूर थई जाय.
वर्तमान पर्यायमां जे ज्ञान–पुरुषार्थनुं कार्य थई रह्युं छे तेने ज जे न माने तेने यथार्थ वस्तुस्वभावना ज्ञाननो
पुरुषार्थ क्यांथी थाय? अने ते वस्तुस्वभावने कई रीते समजे? –कदी पण समजे नहीं.
विकार उपर जीत मळेवे छे, तेथी ते जीतनारा शुद्धपर्यायने ‘जैनधर्म’ कहेवामां आवे छे. आ प्रमाणे ‘जैनधर्म’
ए भाववाचक कथन छे, कोई संप्रदाय, वाडो, संघ के समाजसूचक ते नथी. जे आत्मा पोतामां शुद्धपर्याय प्रगट
करीने विकार उपर जीत मेळवे ते पोते ‘जैनधर्मी’ छे.
छे तेमज (४) तेने पोतामां शुद्धपर्यायरूप जैनधर्म प्रगटे छे. जगतना बधा पदार्थो उपरथी तेमज पोताना
क्षणिक पर्यायो उपरथी द्रष्टि खसीने, पोताना त्रिकाळ ध्रुव चैतन्य निजानंद स्वभावनो आश्रय करीने तेमां
बीजा प्रकारो के पेटा भेदो होई शके नहीं. पर्यायनी हीनाधिकता होय तो पण धर्म तो त्रणे काळे एक ज प्रकारनो
छे. छतां जैनधर्मना नामे जे भेदो प्रवर्ते छे ते खरेखर जैनधर्म नथी पण अज्ञानना घोर वादळोनो प्रताप छे.
आम छतां आवा आ काळमां पण, मुमुक्षुओनां महत्भाग्य छे के परमकृपाळु सद्गुरुदेवश्रीना परम सत्य
धर्मोपदेशनो अपूर्व लाभ निरंतर मळी रह्यो छे. अने ए परम सत्य धर्मने समजवानी रुचिवाळा विरला
जिज्ञासु जीवो. पण आजे दिनदिन वधता जाय छे.
तेनुं नाम खरेखर अनेकांत छे. निश्चय अने व्यवहार बंनेने जाणीने निश्चय तरफ ढळवाथी ज अनेकांत थाय छे. ‘आत्मा
निश्चयथी परनो कर्ता नथी, ने व्यवहारथी परनो कर्ता छे, निश्चयथी आत्मा शुद्ध, रागरहित छे अने व्यवहारथी
–ए प्रमाणे बंने नयोने जाणीने, जो निश्चयनयना विषयभूत परमार्थ स्वभाव तरफ न ढळे तो अनेकांत थतुं नथी.
पर्यायनो आश्रय छोडीने त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनो आश्रय करवो, तेमां ज द्रव्यपर्यायनी अभेदता छे, ते ज अनेकांत (–
प्रमाण) छे. अने ए रीते पोताना अभेदस्वभाव तरफ वळीने अनेकांत प्रगट कर्या विना (१) ‘वस्तुना स्वरूपनो,
(२) आत्माना सर्वज्ञ स्वभावनो, (३) क्रमबद्ध पर्यायनो के (४) जैनधर्मनो यथार्थ निर्णय थतो नथी.