Atmadharma magazine - Ank 074
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : ७४
छे अने पहेला पहेलाना परिणामो प्रगट थतां नथी. ए प्रमाणे दरेक जीव तेम ज अजीव द्रव्यो क्रमबद्ध परिणमे छे,
कोई द्रव्य आडा अवळा पर्यायोमां परिणमतुं नथी. द्रव्यना पर्यायोना क्रमने फेरववा तीर्थंकर, ईन्द्र, नरेन्द्र वगेरे कोई
समर्थ नथी. वस्तुमां त्रणकाळना पर्यायो जे प्रकारे क्रमबद्ध छे ते प्रमाणे केवळज्ञानीना ज्ञानमां ते जणाय छे.
जो वस्तुना त्रणकाळना पर्यायो क्रमबद्ध नियमसर न थता होय तो सर्वज्ञ भगवाननुं ज्ञान पण
अनिश्चित ठरे! अने अनिश्चित ज्ञान होय त्यां सर्वज्ञता होय नहि. ए रीते वस्तुमां क्रमबद्धपर्यायोने स्वीकार्या
वगर सर्वज्ञता ज सिद्ध थई शकशे नहि.
श्री समयसारना सर्व विशुद्धज्ञान अधिकारनी पडेली गाथाओ (३०८ थी ३११) आ संबंधमां घणी
उपयोगी छे. तेनी टीकामां आचार्यदेव कहे छे के “जीवो हि तावत् क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव
एव नाजीवः। एवमजीवोऽपि क्रम नियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीवः एव न जीवः।
‘अर्थ:– प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवां पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी
रीते अजीव पण क्रमबद्ध पोतानां परिणामोथी उपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी.’
ए प्रमाणे क्रमबद्धपर्यायवाळुं ज वस्तुस्वरूप छे. अने ज्ञानीओना सम्यग्ज्ञानमां तेवुं ज जणाय छे.
वस्तुना क्रमबद्धपर्यायो मान्या विना सम्यग्ज्ञान ज सिद्ध थई शके नहि सम्यग्ज्ञानना पांच प्रकार छे–मतिज्ञान,
श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने केवळज्ञान. ए पांचे ज्ञानोमां पोतपोताने योग्य, वस्तुना भूत–
भविष्यना क्रमबद्धपर्यायोने जाणवानुं सामर्थ्य छे. जो ते ज्ञानमां जणाया प्रमाणे ज वस्तुमां क्रमबद्धपर्यायो न
थाय, ने तेमां जरापण फेरफार थाय तो ते ज्ञान मिथ्या ज ठरे. पांच ज्ञानना सामर्थ्य बाबत शास्त्रोमां कथन
आवे छे ते अहीं कहेवामां आवे छे.
मति – श्रुतज्ञान
श्री तत्त्वार्थसूत्रना त्रीजा अध्यायना ३६ मा सूत्रमां मनुष्योना बे प्रकार जणाव्या छे, तेमांथी आर्य
मनुष्योमां जे जीवोने विशेष शक्ति प्राप्त होय तेने ऋद्धिप्राप्त आर्य कहेवामां आवे छे. तेमनी बुद्धि–ऋद्धिनुं
स्वरूप वर्णवतां एक अष्टांग निमित्तत्ताबुद्धि कहेवामां आवी छे. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे–
“अंतरिक्ष, भोम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न अने स्वप्न–ए आठ प्रकारनुं निमित्तज्ञान छे.
तेनी व्याख्या नीचे प्रमाणे छे.
१. सूर्य, चंद्र, नक्षत्रना उदय–अस्तादिक देखी अतीत–अनागत फळनुं जाणवुं ते अंतरिक्ष निमित्तज्ञान छे.
२. पृथ्वीनी कठोरता, कोमळता, चीकाश के लूखाश देखी, विचार करी अगर पूर्वादिक दिशामां सूत्र पडतां
देखीने हानि–वृद्धि, जय–पराजय वगेरेनुं प्रगट जाणवुं ते भोम निमित्तज्ञान छे.
३. अंग–उपांग दिना दर्शन–स्पर्शनादिथी त्रिकाळभावी सुख–दुःखादिनुं जाणवुं ते अंगनिमित्तज्ञान छे.
४. अक्षर–अनक्षररूप तथा शुभ–अशुभने सांभळी ईष्टानिष्ट फळनुं जाणवुं ते स्वर निमित्तज्ञान छे.
प. मस्तक, मुख, डोक वगेरे ठेकाणे तल, मुसल, लाख ईत्यादि लक्षण देखीने त्रिकाळ संबंधी हित–
अहितनुं जाणवुं ते व्यंजन निमित्तज्ञान छे.
६. शरीर उपर श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, कलश वगेरे चिह्न देखीने पुरुषना त्रिकाळ संबंधी स्थान, मान,
ऐश्वर्यादिक विशेषोनुं जाणवुं ते लक्षण निमित्तज्ञान छे.
७. वस्त्र–छत्र–अशन जयनादिथी, देव–मनुष्य राक्षसादिथी तथा शस्त्र–कंटकादिथी छेदाय तेने देखीने
त्रिकाळ संबंधी लाभ–अलाभ, सुख दुःखनुं जाणवुं ते छिन्न निमित्तज्ञान छे.
८. वात–पित्त–श्लेष्म रहित पुरुषने, मुखमां पाछली रात्रे चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, पर्वत के समद्रनुं प्रवेशादि
थवुं एवुं स्वप्न ते शुभस्वप्न छे; घी–तेलथी पोतानो देह लेपायेल होय, अने गधेडा ऊंट उपर चढी दक्षिण
दिशामां गमन ईत्यादि करे–एवुं स्वप्न ते अशुभ स्वप्न छे; तेना दर्शनथी आगामी काळमां जीवनमरण, सुख
दुःखादिनुं ज्ञान थवुं ते स्वप्ननिमित्तज्ञान छे.
–आ आठ प्रकारना निमित्तज्ञानना जे ज्ञाता होय तेने अष्टांगनिमित्त बुद्धि–ऋद्धि छे.”
(–जुओ, मोक्षशास्त्र गुजराती टीका. पृ. ३३प–६ आवृत्ति पहेली)
हवे जो द्रव्यना पर्यायो क्रमबद्ध न थता होय,