: ३०: ब आत्मधर्म: ७४
वांचे, विचारे अने पोतानी तुलनाशक्ति वडे सत्य–असत्यनो निर्णय करे तो तेमने लाभ थशे अने जीवनमां
बाकी रही जतुं सौथी मोटुं कर्तव्य तेमने समजाशे.
वळी धर्मना नामे स्थूळ क्रियाना आग्रहमां फसाई पडेला अने जडनी क्रियामां आत्मानो धर्म माननारा
जीवोने धर्मनी क्रियानुं साचुं स्वरूप खास विशिष्ट पणे आ मासिक समजावे छे.
जो के धर्मना नामे धतिंगो आजे घणा चाले छे अने आ आर्यदेश बाह्यवेश देखीने जेटलो ठगाय छे
तेटलो बीजे क्यांय ठगातो नथी. छतां पण एम मानी लेवुं के ‘जगतमांथी सत्यधर्मनो सर्वथा लोप थई गयो
छे, अने सर्व स्थळे धतिंग ज चाले छे’ –ए पण महान भूल छे. आ काळे पण सत्यधर्मनो सर्वथा लोप नथी
थयो, माटे धीरजथी सत्य–असत्यनी परीक्षा करतां शीखवुं जोईए. माटे सर्व लोको आ ‘आत्मधर्म’ पत्रनो
अभ्यास नियमितपणे एक वर्ष सुधी राखे अने सत्य–असत्यनी परीक्षा करे, एवी तेमना प्रत्ये नम्र सूचना छे.
अत्यार सुधी घणा जिज्ञासु जीवो आ पत्रनो लाभ ले छे, अने तेनाथी सत्धर्मनो सारो प्रचार थयो छे.
छतां पण आ पत्रनो जेटलो विशाळ प्रचार अने फेलावो थवो जोईए तेटलो हजी थयो नथी; ते माटे आ
पत्रना ग्राहको वधवानी जरूर छे. आत्मधर्मना दरेक ग्राहको तथा वांचकोए, तेमज धर्म–प्रेमी भाई–बेनोए ते
माटे प्रयास करवानी जरूर छे. दरेक ग्राहको तेमज वांचकोनी फरज छे के तेमणे आ पत्रना फेलावा माटे बने
तेटलो प्रयत्न करवो, अने पोताना संबंधीओने ते पत्र वांचवानी भलामण करीने तेमने सत्यधर्म प्रत्ये प्रेरवा.
आत्मधर्म नहि वांचनाराओ संबंधी कह्या बाद हवे, जेओ आत्मधर्मनुं वांचन करे छे तेवा जिज्ञासु
वांचकोने एक अगत्यनी भलामण करवानी छे के–जैनदर्शन एवुं गंभीर छे के ज्ञानी पुरुषना सीधा संसर्ग वगर
कोई जीव तेना रहस्यने पामी शके नहीं, एथी शास्त्रोमां देशनालब्धिनुं वर्णन आवे छे,... श्रीमद् राजचंद्रजीना
शब्दोमां कहीए तो ‘पावे नहि गुरुगम विना, एही अनादि स्थित’ –अनादिथी एवी ज वस्तुस्थिति छे के
गुरुगम वगर एटले के देशनालब्धि वगर कोई जीव धर्म पामी शके नहीं. अने ए देशनालब्धि मात्र शास्त्र
वगेरेना वांचनथी के अज्ञानीना उपदेशथी कोई जीव पामी शके नहीं. पण ज्ञानी पुरुषना उपदेशनुं सीधुं श्रवण
करे तो ज देशनालब्धि पामे. माटे धर्मना अभिलाषी जीवोए एकवार तो अवश्य सत्समागम करीने सद्गुरुगमे
देशनालब्धि प्राप्त करवी जोईए. पोतानी मेळे शास्त्रवांचन करवाथी वर्षो सुधी जे कार्य नहि थाय ते कार्य
सत्पुरुषना प्रत्यक्ष समागमे अल्पकाळमां थई जशे... माटे, मात्र ‘आत्मधर्म’ वांचीने ज संतोष न मानतां
विशेष स्पष्ट समजवा माटे पूज्य गुरुदेवश्रीनी अमृतवाणीनुं सीधे सीधुं पान करवा आग्रहभरी भलामण छे.
ज्ञानी पुरुषना श्रीमुखथी आध्यात्मिक उपदेशनुं साक्षात् श्रवण करवुं ते ज आत्मार्थीओने कल्याणनुं मुख्य कारण
छे. एक वखत तो सतनी रुचिपूर्वक चैतन्यमूर्ति ज्ञानी पुरुष पासेथी अवश्य श्रवण करवुं जोईए. एम करवाथी
ज आत्मामां सतनुं परिणमन थाय छे.
श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. २४० मां ‘द्रव्यलिंगी मुनिनी सम्यग्ज्ञान अर्थे थती प्रवृत्तिमां अयथार्थता’
जणावतां कहे छे के “.. कोई जीव ए शास्त्रोनो पण अभ्यास करे छे, परंतु ज्यां जेम लख्युं छे तेम पोते निर्णय
करी पोताने पोतारूप, परने पररूप तथा आस्रवादिने आस्रवादिरूप श्रद्धान करतो नथी. कदापि मुखथी यथावत्
निरूपण एवुं पण करे के जेमा उपदेशथी अन्य जीव सम्यग्द्रष्टि थई जाय.” [ए सिवाय लाटी संहितामां पण पृ.
२१६–७मां एवी मतलबनुं कथन छे]
–परंतु, उपरना प्रसंगमां जे जीव सम्यग्द्रष्टि थई जाय छे ते जीवे पूर्वे कोई ज्ञानी पासेथी अवश्य
देशनालब्धि प्राप्त करी होय छे. जे जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे ते जीव पांच लब्धिपूर्वक ज थाय छे; तेमां त्रीजी
देशनालब्धि छे. देशनालब्धि ज्ञानीना उपदेशथी थाय छे, अज्ञानीना उपदेशथी कदापि थती नथी. छतां केटलाक
जीवो आजे एम कहे छे के अज्ञानीना उपदेशथी पण देशनालब्धि थई जाय. तेम कहेनाराओए धर्मना साचा
निमित्तने पण जाण्युं नथी.
जेणे आत्मज्ञानी गुरु पासेथी प्रथम वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप सांभळ्युं होय अने ते वखते ते सम्यग्दर्शन
न पाम्यो होय पण ते देशनाना संस्कार रही गया होय, एवो कोई जीव, द्रव्यलिंगीनो उपदेश सांभळीने
सम्यग्द्रष्टि थई जाय छे. त्यां खरेखर ते जीवने वर्तमान द्रव्यलिंगी