Atmadharma magazine - Ank 074
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४७६ : ३३:
(६) प्रश्न:– आमां धर्म कई रीते आव्यो? आमां क्यांय परनी सेवा करवानुं के परने सुखी करवानुं तो
न आव्युं, तो धर्म कई रीते थयो?
उत्तर:– भाई, कोई पण जीव परनी सेवा के परने सुखी–दुःखी करी शकतो ज नथी. दरेक जीव पोताना
भाव सिवाय बहारमां कांई पण करी शकतो नथी. पहेलांं अज्ञानभावे परनुं अने विकारनुं अभिमान करीने
आत्माना स्वभावनुं असेवन करतो हतो अने अज्ञानभावे पोते दुःखी थतो हतो, ते अधर्म हतो. हवे चैतन्य
लक्षण वडे पोताना आत्माने परथी अने पुण्य–पापथी जुदो जाणीने, पोताना स्वभावनुं सेवन करे छे अने
अज्ञानभावनुं अनतुं दुःख टाळीने पोते पोताना आत्माने सुखी करे छे, ते ज धर्म छे.
(७) प्रश्न:– लाकडी मारीने तो बीजाने दुःखी करी शकाय छे ने?
उत्तर:– नहि; प्रतिकूळ संयोग ए कांई दुःखनुं स्वरूप नथी. वळी लाकडी मारवी के न मारवानी क्रिया पण
सामो जीव करी शकतो नथी, ते जीव मात्र दुःख देवाना पाप भाव करे छे, पण तेना पाप भावनुं फळ तेनी पासे
रहे छे, तेना भावना कारणे आ जीवने दुःख थतुं नथी; अने शरीर उपर लाकडी पडवाना कारणे पण एने दुःख
थयुं नथी. तेने दुःख थाय तो तेनी पोतानी शरीर उपरनी ममताना कारणे ज थाय छे. माटे कोई कोईने दुःखी के
सुखी करी शकतुं नथी.
(८) प्रश्न:– एक जीव बीजाने दुःखी न करी शके. परंतु असाता कर्मनो उदय तो दुःखनुं कारण छे ने?
उत्तर:– एम पण नथी. केमके असाता कर्मनो उदय तो बाह्य संयोग आपे, पण ते संयोग वखत दुःखनी
कल्पना तो जीव पोते मोह भावथी करे तो ज तेने दुःख थाय छे; माटे असाता कर्मना उदयथी दुःख थतुं नथी
पण मोहभावथी ज दुःख थाय छे. असाताना संयोग वखते पण जो पोते मोह वडे दुःखनी कल्पना न करे अने
आत्माने ओळखीने तेना अनुभवमां रहे तो दुःख थतुं नथी. बाह्य संयोगने फेरवी न शकाय पण संयोग
तरफना वेदनने फेरवी शकाय छे.
(९) अज्ञानीओ सुख–दुःखना तथा बंध–मोक्षना मूळ कारणने समजता नथी अने पर जीवोनो के कर्म
वगेरेनो दोष काढे छे. जेम कूतराने कोई लाकडी मारे त्यां कूतरो ते लाकडीने ज वळगे छे, ने लाकडी उपर बटकां
भरे छे. पण सिंहने गोळी लागे त्यां गोळी सामे जोतो नथी पण ते तो गोळी छोडनार उपर ज तराप मारे छे.
तेम शरीरमां क्षुधा–रोग वगेरे तो संयोग छे, बाह्य निमित्त छे. अज्ञानी ते संयोगने ज दुःखनुं कारण मानीने
तेनो वांक काढे छे. पण अंदरनी ममता ज दुःखनुं कारण छे, ते ममताने तो जाणतो नथी, तेने टाळतो नथी,
अने कूतराना द्रष्टांतनी जेम शरीरना संयोगने ज दुःखनुं कारण मानीने तेने फेरववा मागे छे. अने जे ज्ञानी छे
ते तो पुरुषार्थमां सिंहवृत्ति जेवा छे, तेओ कोई पण संयोगने दुःखनुं कारण मानता नथी तेथी तेमने संयोग
फेरववानी बुद्धि होती नथी. पोताना दोषथी जे रागादि भावबंध छे ते ज दुःखनुं कारण छे एम जाणीने, अने ते
रागादिथी भिन्न पोताना चेतन स्वभावने ओळखीने, स्वभावना पुरुषार्थनी उग्रताना जोरे ते रागादिने छेदी
नांखवा मांगे छे. कोई परवस्तु आत्माने दुःखनुं कारण छे ज नहि. अने ए ज प्रमाणे देव–गुरु–शास्त्र वगेरे
कोई पण पर वस्तु आत्माने सुखनुं के धर्मनुं कारण पण नथी. पोताना चैतन्य स्वभावने जाणीने तेनुं ग्रहण
करवुं, तेमां लीन थवुं ते ज एक मात्र मोक्षनो–सुखनो के धर्मनो उपाय छे.
(१०) अहो, सत्य तो आम ज छे; वस्तुनुं पोतानुं स्वरूप तो आवुं ज छे. छतां कोई ऊंधुंं माने तो ते
तेना घरनुं छे, ते माने छे एवुं वस्तुस्वरूप तो नथी,
सुधारो
आत्मधर्म अंक ७० पृ १७४ कोलम ३ लाईन १५ थी १९ मां लख्युं छे के–
“वळी योग गुणनी पर्याय पण आत्मा प्रमाणे होवा छतां तेमां मध्य रूचक प्रदेश अकंप रहे छे ने बीजा
कंपे छे–एवी तारतम्यता होय छे.” उपरना लखाणने बदले नीचे मुजब सुधारीने वांचवुं–
“प्रदशत्व गुणनी पर्याय आत्मा प्रमाणे होवा छतां, तेमां संकोच विस्तार थाय त्यारे आठ रूचक प्रदेशो
स्थिर रहे छे ने बीजा प्रदेशोमां संकोच विस्तार थाय छे.” (जुओ तत्त्वार्थ राजवार्तिक संस्कृत पृ. २००३)