: ३४ : आत्मधर्म: ७४
एटले तेने कदी धर्म थतो नथी, ने अनंतु दुःख मटतुं नथी.
कोई कोईने सुख के दुःख आपी शकतो ज नथी, छतां में परनुं कर्युं ने पर मारुं करे एम जे माने छे ते
जीव मिथ्यात्वना पापनुं सेवन करीने अनंत संसारमां रखडे छे. ज्ञानी तो एम जाणे छे के हुं द्रष्टा छुं, हुं मारा
स्वभावने ज देखुं छुं. कोई परनो कर्ता नथी, पुण्यनो कर्ता नथी, हुं तो द्रष्टास्वरूप मारा आत्माने देखुं ज छुं.
अहीं साधक जीवने स्वभाव तरफ ढळवुं छे तेथी परनो द्रष्टा छुं ए वात न लीधी पण हुं देखनार आत्माने ज
देखुं छुं–एम कह्युं. आ देखवामां ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग समाई जाय छे. आ ज आत्मधर्मनी
शरूआतनो उपाय छे.
(११) धर्मी जीव कहे छे के हुं देखुं ज छुं एटले के हुं द्रष्टापणे ज थाउं छुं, रागादि विकारपणे हुं थतो नथी.
वळी मने देखवा माटे कोई पुण्यनुं साधन नथी, हुं कोई रागना साधनवडे देखतो नथी पण देखता वडे ज देखुं छुं.
पुण्य परिणामने धर्मनुं साधन न मानवुं पण द्रष्टा स्वभाववडे ज द्रष्टा शक्ति प्रगटे छे एम मानवुं ते ज धर्म छे.
बहारमां कांई पण पर वस्तु लेवा–देवानी क्रिया आत्मा करी शकतो ज नथी. अज्ञानी लोको आ वात काने पडतां
भडके छे अने कहे छे के ‘एवुं कहेनारा गांडानी ईस्पितालमां मोकलवा जेवा छे.’ अहो, शुं थाय? ए तो एना
पोताना भावनी जाहेरात करे छे–एना मिथ्यात्वनुं जोर ज एम पोकारी रह्युं छे. अरे भाई, आ वात समजनारा
तें मानेली ईस्पितालमां नथी जवाना, पण ते तो सिद्धनी ईस्पितालमां जवाना छे. अने जेओ सत्यने नहि
समजे तथा सत्यनो विरोध करशे तेओ पोतानी ज्ञानशक्ति हारी जईने गांडा थईने निगोदमां जवाना.
(१२) प्रश्न:– जो कांईक बीजानी सेवा वगेरे परमार्थना काम करीए तो कांईक कर्युं कहेवाय, एकला
पोतानुं करे ने बीजानुं कांई न करे–एमां शुं? पोतानुं पेट तो कूतरांय भरे छे!
उत्तर:– परनुं कांईक करवुं ते परमार्थ–ए वात ज तद्न खोटी छे. लोकोने मोटो भ्रम घरी गयो छे के
परनां काम करवा ते परमार्थ छे. पण परमार्थनी एवी व्याख्या नथी. परमार्थ परम पदार्थ एटले
(परम+अर्थ) परम पदार्थ–उत्कृष्ट पदार्थ; तो आत्मा छे, तेने ओळखवो
धर्मी जीव कोने कहेवो?
(१) जड पदार्थोनुं काम हुं करी शकुं एम जे माने ते जीव धर्मी नथी.
(२) शरीरनी क्रिया हुं करी शकुं एम जे माने ते जीव धर्मी नथी.
(३) जड कर्मोनो उदय मने विकार करावे एम जे माने ते जीव धर्मी नथी.
(४) आत्मानी दशामां दया, व्रत, पूजा, भक्ति वगेरे जे पुण्य भाव थाय ते मारुं स्वरूप छे एम जे
माने ते जीव धर्मी नथी.
(प) आत्मामां जे उपशम वगेरे सम्यग्दर्शन के केवळज्ञान वगेरे अवस्था छे ते एक समय पूरती छे,
तेना जेटलो आत्माने जे माने ते जीव धर्मी नथी.
(६) जडथी जुदो, विकारथी जुदो अने एक समयपूरती अवस्थानी अपेक्षाथी रहित जे सहज परम
पारिणामिक चैतन्यतत्त्व छे तेनी जे श्रद्धा करे ते जीव धर्मी छे, ते जीव अत्यंत निकटभव्य छे.
जेणे धर्म करवो होय तेणे, आत्मामां शुं चीज छे ते जाणवुं जोईए. शुद्ध जीवतत्त्वने उपादेय करवाथी
शुद्धभाव प्रगटे छे, ते ज धर्म छे. तेथी आचार्यदेव कहे छे के–जे अत्यंत निकट भव्य जीव छे, जेने बंधनथी छूटवुं
छे ने आत्मस्वभावनी प्राप्ति प्रगट करवी छे तेने निजकारणपरमात्मारूप शुद्धजीवतत्त्व ज आदरवा योग्य छे.
(नियमसार प्रवचनो गाथा ३८)
अमृतवाणी
मुनिराज अत्यंत निस्पृह करुणा बुद्धिथी कहे छे अरे प्राणीओ! आत्मानो शुद्ध स्वभाव समज्या वगर
अनंत काळमां बीजा बधा भावो कर्या छे; ए कोई भावो उपादेय नथी. आत्मानो निश्चय स्वभाव ज उपादेय
छे, एम तमे श्रद्धा करो. नियमसार–प्रवचनोमांथी