ते ज परमार्थ छे. परंतु हुं परनी सेवा वगेरे काम करी शकुं एम मानवुं ते परमार्थ नथी, पण ए मान्यतामां तो
आत्माना परमार्थनुं खून थाय छे. कोई आत्मा परनां काम करी शकतो ज नथी. धर्म सभामां जैन परमात्मा
सर्वज्ञदेवे कह्यो ते आ धर्म! जेवुं वस्तु स्वरूप छे तेवुं जैन तीर्थंकरोए जाणीने जाहेर कर्युं ते आ छे, आवुं वस्तु
उत्तर:– वस्तुनुं सत्य स्वरूप तो आ प्रमाणे ज छे. समाजना जीवोने सत्यथी लाभ थाय के असत्यथी?
सत्य वस्तु स्वरूप समज्या नथी तेथी ज तेओ दुःखी छे, जो सत्य वस्तुस्वरूप समजे तो दुःख टळे अने सुखनो
लाभ थाय. सत्य समज्या वगर कोईने लाभ थाय नहि अने सत्यथी कदी कोईने नुकशान थाय नहीं. जे जीवोने
नुकशान थाय छे ते तेमने पोताना असत्य भावनुं (–मिथ्या समजणथी) ज थाय छे. आ सत्यमां तो लाभनो
ज धंधो छे, तेमां कोईने नुकशान छे ज नहि.
केम के ते जीवने पोताने वर्तमानमां ते रागने लीधे वीतरागदशा अटकी छे, ज्यारे स्वभावना जोरे ते रागने
छेदशे त्यारे वीतरागता अने मुक्ति थशे. माटे ते रागथी स्वने लाभ नथी, हवे ते रागथी परने पण लाभ नथी
ते वात समजाववामां आवे छे. प्रथम तो ते रागना निमित्ते जे तीर्थंकर नामकर्म बंधायुं तेनुं फळ तो ते रागनो
अभाव थया पछी ज आवे छे अर्थात् ज्यारे ते राग छेदीने केवळज्ञान प्रगट करे छे त्यारे ज ते तीर्थंकर नामकर्म
उदयमां आवे छे ने दिव्यध्वनि छूटे छे. हवे ज्यां सुधी दिव्यध्वनि सांभळनारनुं लक्ष वाणी उपर छे त्यां सुधी ते
जीवने विकल्प अने रागनी उत्पत्ति थाय छे, ज्यारे वाणीनुं लक्ष छोडीने पोते पोताना स्व लक्षे ठरे त्यारे ज
सम्यग्दर्शनादिनो लाभ थाय छे. माटे नक्की थयुं के रागथी परने पण लाभ थतो नथी. पोताने स्व लक्षे लाभ
थयो त्यां उपचारथी एम कहेवाय के भगवाननी वाणीथी अपूर्व लाभ थयो. अथवा तो ‘उदय श्री जिनराजनो,
लाभ थयो नथी, स्वभावना आश्रये ज लाभ थयो छे.
एवुं कांई छे ज नहि. अत्यारे तो सत्यनी समजण करीने हा पाडनारा वधता जाय छे–ए अपेक्षाए काळ सारो
छे. सत्यनी हा पाडनार विनयथी निमित्तनुं बहुमान करे छे, पण परमार्थथी तो पोताने जे स्वभाव समजायो
तेनुं ज बहुमान करे छे, खरेखर कोई परनुं बहुमान करता ज नथी.
उत्तर:– तीर्थंकरोनो विनय कहेवो कोने? तीर्थंकर भगवान वीतराग छे, खरेखर राग वडे तेमनो विनय
करीने तेमां ठरवुं–ते ज तीर्थंकरोनो साचो विनय छे. सत् समजवाथी विनय जाय नहि पण सत् समजवाथी ज
सत्नी खरी भक्ति अने खरो विनय थाय छे. पहेलांं अज्ञानपणे कुदेवादि पासे माथां झुकावतो; तेने हवे साचुं
समजतां वीतराग नहि थाय त्यां सुधी वच्चे सत् निमित्तोनो विनय, भक्ति ने बहुमान आव्या वगर रहेशे
नहि; पण त्यां परमार्थे परनुं बहुमान नथी पण पोताना भावनुं ज बहुमान छे. ज्ञानीओ पोताना स्वभावने
ज सर्वोत्कृष्ट जाणीने तेनो आदर करे छे. स्वभावना आदरमां तीर्थंकरोनो विनय समाई जाय छे.
अमित फळ दान दातारनी जेथी भेट थई तुज रे...