Atmadharma magazine - Ank 074
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ३६: आत्मधर्म: ७४
ज्यां पोताना परिपूर्ण स्वभावनुं भान थयुं त्यां बहारमां कोनो महिमा करे? तेथी पोते पोताने ज
नमस्कार करे छे. खरेखर ज्यारे पोते पोतानुं स्वरूप समजीने बहुमान करे छे त्यारे शुभरागने लीधे
‘तीर्थंकरादिनुं बहुमान कर्यु’ एम उपचारथी कहेवाय छे. परंतु विकारने ज जे पोतानुं स्वरूप माने छे ते
पोताना पवित्र निर्विकार स्वरूपनो अनादर करे छे. अने जे पोताना पवित्र स्वरूपनो अनादर करे छे ते
अनंता तीर्थंकरोनो अनादार करे छे; केमके भगवाने जेम कर्युं अने जेम कह्युं तेनाथी ते विरुद्ध करे छे.
(१७) कोई पण संयोगी चीज राग–द्वेषनुं कारण नथी, केम के जो हुं पोते पुरुषार्थनी नबळाईथी पर
लक्ष न करुं ने स्वभावमां ठरुं तो राग–द्वेष थता नथी. आम जाण्युं त्यां अनंता निमित्तोनुं पडखुं श्रद्धामांथी
टळी गयुं–अर्थात् निमित्त उपरनी द्रष्टि टळी गई, अने स्वभावमां वळ्‌यो. हवे जेम जेम ज्ञाता द्रष्टा
स्वभावमां एकाग्र थवा मांडयो तेम तेम राग–द्वेष ओछा थवा मांडया. स्वभावमां आवतां राग तूटवा
मांडयो ने पर्यायनी निर्मळता वधवा लागी, तेनुं कारण कोई राग के परनुं अवलंबन नथी पण अंदरनी
त्रिकाळ चेतनशक्ति ज छे. बस, जेटलो द्रष्टा स्वभावमां एकाग्र थयो तेटलो तो राग टळ्‌यो अने नबळाईथी
जे अल्प राग रह्यो तेनो जाणनार रही गयो. आमां निमित्त, पुरुषार्थनी नबळाई, पर्याय अने त्रिकाळी
स्वभाव ए चारे सिद्ध थई जाय छे पण तेमां आश्रय तो एक त्रिकाळी स्वभावनो ज करवानुं आवे छे.
(१८) निमित्तोने देखवाथी राग–द्वेष थता नथी, केम के केवळी भगवान पण निमित्तोने देखे छे छतां
तेमने राग–द्वेष थता नथी. सूंवाळी पथारी ते रागनुं कारण नथी ने कांटा भोंकाय ते द्वेषनुं कारण नथी. –
आम बधाय निमित्तोमां लाभ–नुकशानपणानी तथा राग–द्वेषपणानी मान्यता छूटी जतां वीतरागी
अभिप्राय थयो; ने अनंत निमित्तोनी द्रष्टिथी पाछो खसीने पोतानी तरफ जोवा मांडयो.
(१९) पोतानी पर्यायमां पुरुषार्थनी नबळाईथी जे राग–द्वेष थाय छे ते कोना आधारे टळे? प्रथम
तो कोई निमित्तना कारणे ते राग–द्वेष थता नथी माटे निमित्तना आधारे ते टळे नहि, तेम ज रागना
आधारे पण राग टळे नहि. राग ते स्वभावने मददगार नथी केमके जेम जेम स्वभाव तरफ विशेष वलण
थतुं जाय छे तेम तेम राग टळतो जाय छे, ने निर्मळदशा थती जाय छे. ते निर्मळदशाना आधारे (अर्थात् ते
पर्यायना लक्षे) पण रागादि टळता नथी. पण ते पर्याय सामान्य स्वभावना आधारे आवे छे, ते
स्वभावना आधारे ज रागादि टळी जाय छे. ए रीते सामान्यना आधारे विशेष छे ने राग–द्वेषना अभावे
विशेष छे, विशेषनी निर्मळतामां सामान्य स्वभावनी आश्रयनी अस्ति छे ने राग–द्वेषनी नास्ति छे,
एकनो आधार छे ने बीजानो अभाव छे. आ रीते पर्यायनी निर्मळता वधवानुं एटले के मोक्षमार्गनुं ने
मोक्षनुं कारण कोई निमित्तो नथी, राग नथी पूर्व अवस्था नथी पण त्रिकाळ सामान्य स्वभाव ज तेनुं कारण
छे. एटले मोक्षार्थीओए सामान्य साथे ज विशेषने एकमेक करवानुं रह्युं.–आ ज मोक्षनो उपाय छे. आमां
स्वमां अभेद करवानी ज वात छे, पहेलांं भेदनो विकल्प ऊठे छे पण ते उपाय नथी, भेद तोडीने अभेद थई
जवुं ते ज उपाय छे. अभेदमां आवतां ज भेद तूटी जाय छे.
(२०) श्री कुंदकुंद प्रभुजीए बे हजार वर्ष पहेलांं आ रचना करी छे, अने एक हजार वर्ष पहेलांं श्री
अमृतचंद्राचार्यदेवे तेनी टीका रची छे, तेनो आ विस्तार थाय छे, ते जीवोने समजी शकाय ते माटे ज छे.
छतां जे समजी शकवानी ना पाडे ते जीव बंनेनो (–समजावनार अने समजनारनो) अपराध–अविनय करे
छे, एटले खरेखर ते पोतानी समजणनो ज अपराध करे छे.
आचार्य प्रभुने जे विकल्प आव्यो छे ते विकल्प स्वभावना आश्रये क्षणेक्षणे टळतो जाय छे;
बहारमां शब्दोनी (ग्रंथ रचनानी) क्रिया स्वयं थती जाय छे अने आचार्य प्रभुनुं वलण क्षणे क्षणे विशेष
निर्मळपणे अंतरमां ढळतुं जाय छे. आचार्यदेवने विकल्प ऊठ्यो ने जे शास्त्रो रचाणां, –एवा महान पवित्र
योगे आ काळे रचाई गयेलां आ शास्त्रो समजवाने लायक जीवो न होय ए तो बने ज केम? हजारो पात्र
जीवो समजवानी तैयारीवाळा छे अने एकावतारीओ पण आ काळे होय छे. जो आ काळे आत्मस्वभाव न
समजी शकातो होय तो संतोनी वाणी, टीका, शास्त्ररचनानो अने कहेनारनो विकल्प ए बधुं मफतमां व्यर्थ
जाय छे. समजाय छे आमां?