Atmadharma magazine - Ank 074
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४७६ : ३९:
ताराथी थई शके तेम छे–एम जाणीने सर्वज्ञभगवाने कह्युं छे अने तुं कहे के माराथी न थाय, तो तें सर्वज्ञदेवनो
विरोध कर्यो एटले तारी शक्तिनो पण तें अनादर कर्यो. पण भाई जेनाथी पोतानुं स्वतंत्र स्वरूप समजाय छे
तेने ज कह्युं छे, माटे तुं तारी ताकातनो विश्वास कर. अहीं सुधी आव्यो अने हवे नकार करीने पाछो जा–एम
बने ज नहि. तारामां सर्व सामर्थ्य छे तेनो स्वीकार करीने हा ज पाड. तारा स्वभावनी हा तो पाड, स्वभावना
हकारमांथी सिद्धदशा आवशे, पण नकारमांथी नहि आवे, माटे ना न पाड.
श्री आनंदघनजी कहे छे के हे नाथ! जगतमां सत्स्वरूपनो नकार करनार मोटो भाग छे, सत्मां कोई
साथ आपतुं नथी; छतां पण हुं तो धिठ्ठाई करीने एटले के जगतनी दरकार छोडीने तारी पासे चाल्यो आवुं
छुं.–एम पोताना स्वभावनी द्रढता अने बहुमान करे छे. तेमना वखतमां तो लोकोनी बहु तैयारी न हती, अने
सत्नी हा पाडनार पण मळता नहि एटले तेओ जंगलमां चाल्या गया हता. ते हिसाबे तो अत्यारनो काळ
घणो सारो छे के सत्यनी निडरपणे हा पाडनारा हजारो जीवो तैयार छे. हजी तो दिवसे दिवसे परम सत्यनी हा
पाडनारा वधता जाय छे. जिनशासन तो हजी हजारो वर्ष टकवानुं छे, तेथी पात्र जीवो पण होय ज ने!
(३१) आत्मा चेतनमय छे. चेतनना बे प्रकार छे–दर्शन अने ज्ञान. जे द्रष्टा–ज्ञाता शक्ति छे ते तो
त्रिकाळी गुण छे, ते सामान्य छे. देखवा–जाणवानुं कार्य तो तेनी विशेषपर्याय वडे थाय छे. दर्शनगुण ते
सामान्य छे अने दर्शनउपयोगरूप पर्याय ते विशेष छे; परंतु तेनो विषय सामान्य छे. सामान्य एटले विशेष
वगरनुं सामान्य एम नहि, पण बधी वस्तुमां भेद पाड्या वगर सत्तामात्रनुं ग्रहण करे छे तेनुं नाम सामान्य
छे. ज्ञान उपयोग दरेक पदार्थने विशेष भेद पाडीने जाणे छे तेथी तेने विशेष कहेवाय छे. आ रीते विषयनी
अपेक्षाए दर्शन सामान्य छे ने ज्ञान विशेष छे. आ प्रमाणे दर्शन ज्ञानवडे जीवने परद्रव्योथी भिन्न जाणीने
स्वरूपमां ढळवानी आ भावना छे.
भावना एटले शुं? भावना ते स्वरूप तरफ ढळती पर्याय छे, तेमां दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे आवी
जाय छे. भावना ते मोक्षमार्गरूप छे, भावना त्रिकाळ नथी पण वर्तमान पर्यायरूप छे. आ भावना ए ज
धर्मनी क्रिया छे. क्रिया एटले फेरफार. द्रव्य–गुण त्रिकाळ छे तेमां फेरफार न होय, पण पर्यायमां क्रिया
एटले फेरफार होय.
(३२) हुं जाणनारने जाणुं ज छुं–एम विचारतां जो के विकल्प तो छे पण त्यां विकल्प तरफ वलण नथी
पण स्वभावसन्मुख वलण छे; हुं विकल्प छुं–एम लक्षमां नथी लीधुं पण हुं ज्ञान छुं–एम लक्षमां लईने स्व
तरफ वळ्‌यो छे, एटले अंशे विकल्पथी जुदो पड्यो छे. हवे आगळ वधीने अभेद स्वरूपमां ढळे छे ने ‘हुं
सर्वविशुद्ध चिन्मात्र छुं–ज्ञप्ति मात्र भाव छुं’ एम विकल्परहित अनुभव करे छे. अभेद अनुभवने वाणी द्वारा
समजावतां भेद आवी ज जाय छे, पण समजनार जीवो कहेनारनो आशय पकडीने भेदने गौण करीने अभेदने
समजी जाय छे. बस, आ ज रीते वच्चे व्यवहार आवी जाय छे. पण आचार्यदेव कहे छे के ‘
हंतः’ एटले के खेद
छे के वच्चे भेदरूप व्यवहार आव्या वगर सीधुं अभेदमां पहोंचातुं नथी.
(३३) आ मोक्ष अधिकार छे. मोक्ष नजीक जतां अर्थात् स्वरूपमां लीनता करतां एकदम बधी वृत्ति लय
थईने बंधनभावरहित पूर्ण निर्मळदशा थई जाय छे, तेनुं आ वर्णन छे. अहीं तेनी भावना छे. स्वभावनी जेवी
भावना करे ते प्रकारनो साक्षात अनुभव थाय छे. जेवी भावना तेवो भाव, एटले के आत्मानी जेवी भावना
करे तेवुं परिणमन थाय. जो पोताना आत्माने शुद्ध जाणीने तेनी भावना करे तो शुद्धदशारूपे परिणमन थई
जाय छे, अने जो आत्माने अशुद्धपणे ज भावे तो अशुद्धदशारूप परिणमन थाय छे. पहेलांं आत्माना शुद्ध
स्वभावने बराबर निर्णयमां ल्ये तो पछी तेनी भावना करीने–ते तरफ ढळीने–परिणमीने तेनो अनुभव करे,
अने पूर्ण परमात्मदशा प्रगटे.
अहीं मोक्ष केम थाय ते बतावतां आचार्य भगवाने कह्युं के स्वभावने लक्षमां लेवा जतां वच्चे
भेदनी लागणी आवशे तो खरी, पण ते लागणी विनाना आत्म स्वभावनी समजण करीने अभेद
स्वरूपमां एकाकार चिन्मात्रपणे ठरवुं ते ज आत्मानुं ग्रहण करवानी रीत छे. अने ए रीते आत्मानुं
ग्रहण करवुं ते मोक्षनो उपाय छे.