जाणतां तन्मयपणे जाणे छे माटे स्वने जाणवुं तेने निश्चय कह्यो छे.
नथी, एटलुं बताववा माटे ‘व्यवहारनये परने जाणे छे’ एम कह्युं छे. त्यां आचार्यदेव कहे छे के– ‘
सोऽपि निश्चय एवेति। ’
गा. ४८–४९मां कह्युं छे के सर्वने नहि जाणनार एकने पण जाणतो नथी अने एकने नहि जाणनार सर्वने पण
जाणतो नथी. माटे जेओ आत्माने ‘आत्मज्ञ’ माने पण परज्ञ (सर्वज्ञ) न माने तेओ आत्मानी स्वपर
प्रकाशक शक्तिने ज स्वीकारता नथी. तेथी केवळी भगवाननो आत्मा पोताने ज जाणे, परने न जाणे–एम
मानवाथी महा दूषण आवे. आ संबंधमां पं. श्री दीपचंदजी शाहे चिद्दविलास (पृ. १४ तथा १७) मां घणो
प्रकाशनमां निश्चळ व्याप्य–व्यापकवडे लीन थयेलो अखंड प्रकाश छे; परनुं प्रकाशन तो छे परंतु व्यापकरूप
एकता नथी, तेथी उपचार संज्ञा थई. वस्तुरूप शक्ति उपचार नथी.” ... ...“जो ज्ञान केवळ स्वसंवेद ज
(अर्थात् मात्र पोताने ज जाणनार) छे, ते स्व पर प्रकाशक नथी,–तो महादुषण थाय. स्वपदनी स्थापना परना
स्थापनथी छे. परनी स्थापनानी अपेक्षा दूर करवामां आवे तो स्वनुं स्थापन पण सिद्ध थतुं नथी. माटे स्व–पर
प्रकाशक शक्ति मानवाथी सर्व सिद्धि छे, आमां कांई संदेह नथी.”
एम माननाराओ केवळी भगवानने द्रव्य–गुण–पर्यायनुं संपूर्ण ज्ञान होवानुं मानता नथी.
क्यांथी झीले? माटे केवळी भगवानने अपेक्षित धर्मोनुं ज्ञान न मानवुं ते देखीती रीते ज मिथ्या छे. जो
अपेक्षित धर्मोने केवळी भगवान न जाणता होय तो ते अल्पज्ञ ठरे. गणधरो अने श्रुतकेवळीओनुं ज्ञान केवळी
भगवानना ज्ञानना अनंतमां भागे छे, छतां ते गणधरादि छद्मस्थ जीवो अपेक्षित धर्मोने जाणे, अने तेमना
परमगुरु श्री केवळी भगवान अपेक्षित धर्मोने न जाणे–ए मान्यता तद्न मिथ्या छे.
तेमां अपेक्षित धर्मो पण आवी जाय छे. आ बाबतमां श्री अमृतचंद्र आचार्यदेवे समयसारना बीजा कळशमां
खुलासो कर्यो छे. (जुओ, समयसार कलश बीजो तथा तेनो भावार्थ: पृ. ३४) आजे केटलाक उपदेशको पण कहे
छे के आत्मामां सर्वज्ञ शक्ति छे के नहि–ते नक्की करवानी चर्चा के झंझटमां पडवुं नहि, आपणे तो राग–द्वेष
टाळवानुं काम छेने! पण ए मान्यता मोटुं अज्ञान छे. सर्वज्ञना निर्णय वगर मिथ्यात्व के रागद्वेष टळे ज नहीं.
सर्वज्ञदेवनो निर्णय ते मोहक्षयनो उपाय छे; एम जणावतां भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेव प्रवचनसारनी ८० मी
गाथामां कहे छे के–
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।।