Atmadharma magazine - Ank 074
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २६: आत्मधर्म: ७४
तो साचुं ज छे, परंतु पर साथे तन्मय थईने ते ज्ञान परने जाणतुं नथी तेथी तेने व्यवहार कह्यो छे. अने स्वने
जाणतां तन्मयपणे जाणे छे माटे स्वने जाणवुं तेने निश्चय कह्यो छे.
आ संबंधी श्री समयसारजी गा. ३प६ थी ६प नी टीकामां श्रीज्यसेनाचार्यदेव स्पष्ट खुलासो करे छे के–
जो केवळी तन्मयपणे परने जाणे तो परना सुख दुःख संवेदनकाळे परना सुख दुःखने प्राप्त करे, पण एम थतुं
नथी, एटलुं बताववा माटे ‘व्यवहारनये परने जाणे छे’ एम कह्युं छे. त्यां आचार्यदेव कहे छे के– ‘
यद्यपि
स्वकीय सुख सं वेदनापेक्षया निश्चयः परकीय सुखसंवेदनापेक्षया ब्यवहारस्तथापि छद्मस्थजनापेक्षया
सोऽपि निश्चय एवेति। ’
अर्थ:– जो के पोताना सुख संवेदन अपेक्षाए निश्चय अने परकीय सुख संवेदन
अपेक्षाए व्यवहार छे, तो पण छद्मस्थजन अपेक्षाए ते पण निश्चय ज छे.
परना ज्ञान विना स्वनुं ज्ञान पूर्णता पामी शके नहि; जो स्वने जाणे अने परने न जाणे तो ते ज्ञान
स्वने ज जाणी शके नहि. तेम ज परने जाणे अने स्वने न जाणे तो ते परने ज जाणी शके नहि. श्री प्रवचनसार
गा. ४८–४९मां कह्युं छे के सर्वने नहि जाणनार एकने पण जाणतो नथी अने एकने नहि जाणनार सर्वने पण
जाणतो नथी. माटे जेओ आत्माने ‘आत्मज्ञ’ माने पण परज्ञ (सर्वज्ञ) न माने तेओ आत्मानी स्वपर
प्रकाशक शक्तिने ज स्वीकारता नथी. तेथी केवळी भगवाननो आत्मा पोताने ज जाणे, परने न जाणे–एम
मानवाथी महा दूषण आवे. आ संबंधमां पं. श्री दीपचंदजी शाहे चिद्दविलास (पृ. १४ तथा १७) मां घणो
स्पष्ट खुलासो कर्यो छे. त्यां कह्युं छे के–“उपयोग ज्ञानमां स्व–पर प्रकाशक शक्ति छे, ते पोताना स्वरूप
प्रकाशनमां निश्चळ व्याप्य–व्यापकवडे लीन थयेलो अखंड प्रकाश छे; परनुं प्रकाशन तो छे परंतु व्यापकरूप
एकता नथी, तेथी उपचार संज्ञा थई. वस्तुरूप शक्ति उपचार नथी.” ... ...“जो ज्ञान केवळ स्वसंवेद ज
(अर्थात् मात्र पोताने ज जाणनार) छे, ते स्व पर प्रकाशक नथी,–तो महादुषण थाय. स्वपदनी स्थापना परना
स्थापनथी छे. परनी स्थापनानी अपेक्षा दूर करवामां आवे तो स्वनुं स्थापन पण सिद्ध थतुं नथी. माटे स्व–पर
प्रकाशक शक्ति मानवाथी सर्व सिद्धि छे, आमां कांई संदेह नथी.”
(४) अपेक्षित धर्मोने पण केवळी भगवान जाणे छे. अपेक्षित धर्मने धारण करनार कांतो द्रव्य होय, कां
गुण होय के पर्याय होय छे. केवळी भगवान द्रव्य–गुण–पर्यायने तो जाणे, अने तेना अपेक्षित धर्मोने न जाणे
एम माननाराओ केवळी भगवानने द्रव्य–गुण–पर्यायनुं संपूर्ण ज्ञान होवानुं मानता नथी.
श्रीगणधरोए केवळी भगवानना दिव्यध्वनिमांथी अपेक्षित धर्मोनुं ज्ञान प्राप्त कर्युं; जो केवळी भगवानने
अपेक्षित धर्मोनुं ज्ञान न होय तो तेमनी वाणीमां ते अपेक्षित धर्मोनो उपदेश क्यांथी आवे? अने गणधरो
क्यांथी झीले? माटे केवळी भगवानने अपेक्षित धर्मोनुं ज्ञान न मानवुं ते देखीती रीते ज मिथ्या छे. जो
अपेक्षित धर्मोने केवळी भगवान न जाणता होय तो ते अल्पज्ञ ठरे. गणधरो अने श्रुतकेवळीओनुं ज्ञान केवळी
भगवानना ज्ञानना अनंतमां भागे छे, छतां ते गणधरादि छद्मस्थ जीवो अपेक्षित धर्मोने जाणे, अने तेमना
परमगुरु श्री केवळी भगवान अपेक्षित धर्मोने न जाणे–ए मान्यता तद्न मिथ्या छे.
भगवाननी वाणी अनंत नयात्मक होय छे. (जुओ, समयसार नाटक पृ. ३३) अनंत नयो अपेक्षित
धर्मोनुं प्रतिपादन करे छे. नय–उपनयोना विषयरूप पर्यायोनो समूह ते द्रव्य छे. (आप्तमीमांसा गा. १०७)
माटे द्रव्य गुण–पर्यायना ज्ञानमां अपेक्षित धर्मोनुं ज्ञान आवी जाय छे. केवळज्ञान अनंत धर्मोने जाणे छे, अने
तेमां अपेक्षित धर्मो पण आवी जाय छे. आ बाबतमां श्री अमृतचंद्र आचार्यदेवे समयसारना बीजा कळशमां
खुलासो कर्यो छे. (जुओ, समयसार कलश बीजो तथा तेनो भावार्थ: पृ. ३४) आजे केटलाक उपदेशको पण कहे
छे के आत्मामां सर्वज्ञ शक्ति छे के नहि–ते नक्की करवानी चर्चा के झंझटमां पडवुं नहि, आपणे तो राग–द्वेष
टाळवानुं काम छेने! पण ए मान्यता मोटुं अज्ञान छे. सर्वज्ञना निर्णय वगर मिथ्यात्व के रागद्वेष टळे ज नहीं.
सर्वज्ञदेवनो निर्णय ते मोहक्षयनो उपाय छे; एम जणावतां भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेव प्रवचनसारनी ८० मी
गाथामां कहे छे के–
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।।