कर्मना परमाणुओनो नाश थई जाय छे ते पुद्गलनो स्वकाळ छे, अने बाह्यमां वस्त्रादि छूटया ते वस्त्रादिना
परमाणुओनो स्वकाळ स्वतंत्र होवा छतां, ज्यारे आत्मामां ठरवानो स्वकाळ होय त्यारे परमाणुमां त्रणकषाय
कर्म न टळे एम बने नहि अने वस्त्रादिनो वियोग न थाय एम बने नहि. आवो ज निर्मळ मुनिदशानो ने
वस्तुनो स्वभाव छे. अनादिअनंत संतोनी आवी ज दशा छे के अंतरमां एकदम वीतरागता होय ने बाह्यमां
वस्त्रनो एक ताणो पण न होय. शरीर उपर एक वस्त्रनो ताणो पण राखवानुं लक्ष थाय अने छठ्ठा–सातमा
गुणस्थाननी मुनिदशा टकी रहे–एम त्रणकाळ त्रणलोकमां होय शके नहि. आ कोईए कल्पेलो मार्ग नथी, पण
आत्माना भानपूर्वक लंगोटी रहित दशा होय एवो सनातन अनादि वस्तुभावना पर्यायनो धर्म छे. ते पर्यायने
अन्यथा माने तेणे मुनिदशाने के वस्तुस्वभावने जाण्यो नथी. जोके वस्त्रना ग्रहण–त्यागनो कर्ता आत्मा नथी,
छतां ज्यारे आत्मामां त्रणकषायना नाशरूप वीतरागी चारित्रदशा प्रगटे त्यारे राग अने वस्त्रोनो सहजपणे
अभाव थया विना पण रहेतो नथी, आवो ज निमित्तनैमित्तिक संबंध छे.
भगवाननी दीक्षानी स्थापना छे, पण आवा प्रसंगे पोते अंतरमां एवी भावना करे के मने एवी परम
वीतरागी निर्ग्रंथदशा क्यारे आवे! हुं मुनि थईने आत्मध्यानमां लीन थाउं! हुं क्यारे ए वीतरागी संतोनी
पंक्तिमां बेसुं! –आवी भावना कोण करे? जेने आत्माना चिदानंद रागरहित स्वभावनुं भान होय अने यथार्थ
मुनिदशा केवी होय तेनी ओळखाण होय ते ज आवी यथार्थभावना करी शके. आ मुनिदीक्षानी स्थापनानो
निक्षेप छे, पण ते निक्षेप कोण करे? स्थापना ते तो निमित्त छे, पर छे, व्यवहार छे. उपादान वगर निमित्त
होय नहि, स्वना भान विना परनुं भान होय नहि अने निश्चय वगर साचो व्यवहार होय नहि. माटे जेने
स्व–उपादानना निश्चयस्वभावनी ओळखाण होय ते ज पर निमित्तमां स्थापनानिक्षेपरूप व्यवहारने यथार्थ
जाणे. मुनिपद तो रागरहित चारित्रदशा छे. पहेलांं जेने रागरहित आत्मस्वभावनी ओळखाण थई होय ते ज
रागरहित थवानो पुरुषार्थ करी शके. पण जे रागने ज पोतानुं स्वरूप मानतो होय ते जीव रागरहित थवानो
पुरुषार्थ कोना जोरे करशे? तेनी रागरहित थवानी भावना पण यथार्थ न होय. धर्मीने पोताना ज्ञानमूर्ति
रागरहित स्वभावनी द्रष्टि छे ने अवस्थामां नबळाईथी राग छे, ते रागने स्वभावनी एकाग्रताना बळे
टाळीने मुनि थवानी भावना छे. सहज स्वरूपनी एकाग्रता विना ‘राग छोडुं’ एवी हठथी राग छूटतो नथी.
हठथी बाह्म त्याग करी नांखे ते खरो त्याग कहेवाय नहि. ‘राग टाळुं’ एवी बुद्धिथी राग टळतो नथी पण राग
उत्पन्न थाय छे, छतां तेने राग टाळवानो उपाय माने तो ते जीव पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे. खरेखर रागने
टाळवो पडतो नथी, पण बीजा समये अंदरमां ध्रुव सत्स्वभावनो आश्रय करतां रागनी उत्पत्ति ज थती नथी,
तेनुं नाम रागनो त्याग छे. आ रीते भगवान आत्माने रागनो त्याग नाममात्र छे. केमके राग स्वभावमां
नथी. आत्मा पोताना स्वभावमां एकाग्र थयो त्यां रागने छोडवो पडतो नथी पण सहेजे छूटी जाय छे. अहा,
आत्मा रागने पण छोडतो नथी तो पछी वस्त्रादि परने आत्मा छोडे–ए केम बने? आम होवा छतां,
मुनिदशामां वस्त्रनो संयोग रहे–एम पण त्रणकाळमां बनतुं नथी. त्रणकाळ त्रणलोकमां वस्तुनी पर्यायनो एवो
ज नियम छे के छठ्ठी–सातमी भूमिकामां झूलता संतने वस्त्र राखवानो विकल्प पण होय नहि. अहो, ए तो
परम उदासीनदशा छे, जेम काचबाने भय थतां पग अने मोढाने पेटमां संकोची ल्ये छे तेम मुनिनी दशा
ईन्द्रियो तरफथी संकोचाईने पोताना स्वभावमां वळी गई छे, मुनि पोताना स्वभावमां गुप्त थई गया छे.
मडदांनी जेम