Atmadharma magazine - Ank 075
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ४८: आत्मधर्म: ७५
ज शरणभूत छे... एवा पोताना ध्रुवस्वभावने भूलीने मिथ्यात्वने लीधे जीव अनंत संसारमां रखडी रह्यो छे.
संसारमां रखडतां आ जीवे, पूर्वभवनी स्त्रीने माता तरीके अने पूर्वभवनी माताने स्त्री तरीके अनंतवार सेवी
छे. पुण्य करीने स्वर्गमां अने पाप करीने नरकनिगोदमां जीव रखडे छे. आवा संसारने धिक्कार छे! संसार कोई
बीजी चीज नथी पण आत्मानो ज विकार छे.. आत्मा सदाय पवित्र मूर्ति छे, ने विकार तथा शरीर ते
अशुचिमय छे... त्रिकाळ एकरूप मारो स्वभाव छे एटले मारे मारा स्वभावथी एकत्व छे... हुं एक
ज्ञायकस्वभाव छुं, शरीर अने रागादि मारुं स्वरूप नथी, तेनाथी मारे अन्यत्व छे... पुण्य–पाप आस्रव छे ते
मारुं स्वरूप नथी,... स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां लीन थतां संवर–निर्जरा प्रगट थाय छे... आ संसारमां
जीवने रत्नत्रयरूप बोधिनी प्राप्ति ज अत्यंत दुर्लभ छे. पूर्वे अनंतकाळमां आत्माने बधुं मळी चूकयुं छे,
आत्माने अनंतकाळमां नहि मळेल एक रत्नत्रय ज छे. –ईत्यादि प्रकारे बार वैराग्य भावनाओनुं चिंतवन
भगवान करता हता. पछी लोकांतिक देवो आवीने प्रभुनी स्तुति करीने वैराग्यने अनुमोदन आपे छे, अने देवो
दीक्षा कल्याणिक उजववा आवे छे. अने भगवान दीक्षा लईने चारित्रदशा अंगीकार करे छे. ए बधुं द्रश्य हमणां
अहीं थई गयुं छे.
(४) चारित्रदशा
आत्माने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थया पछी पण चारित्रदशा वगर मुक्ति थती नथी. चारित्रदशा
कोई बाह्य वेषमां नथी, पण आत्माना सिद्ध जेवा अतींद्रिय आनंदमां लीन थतां त्रण कषायनो नाश थईने
छठ्ठा–सातमां गुणस्थाननी वीतरागीदशा प्रगटे छे, ते चारित्रदशा छे. एवी चारित्रदशा जेने प्रगटी होय तेने ज
मुनि कहेवाय छे. एवी चारित्रदशा वगर सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानरूप धर्म होय, पण मुनिदशा होय नहीं.
भगवानने पोताने आत्मानो परिपूर्ण आनंद द्रष्टिमां तो आव्यो छे, पूर्णानंद स्वभावनी श्रद्धा अने
ज्ञान थयुं छे, पोताना आत्मामां नक्की थयेलुं छे के हुं आ ज भवे केवळज्ञान लईने भगवान थवानो छुं; परंतु
तीर्थंकर भगवानने पण चारित्रदशा वगर केवळज्ञान थतुं नथी. तेथी भगवानने वैराग्य थतां तेओ दीक्षा
अंगीकार करे छे. ‘हुं दीक्षा लईने मुनि थाउं’ एवो विकल्प ते तो राग छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी, तेम ज
बाह्यमां केशलोचनी के वस्त्रो उतारवानी क्रिया जडनी छे, आत्मा तेनो कर्ता नथी. आत्माने मुनि थवानी वृत्ति
ऊठी ते राग छे, ते रागने लीधे चारित्रदशा थती नथी पण स्वभावनी लीनताथी चारित्रदशा थाय छे. तेम ज
ते रागने लीधे वस्त्र उतरवानी क्रिया थती नथी, पण ते जडना स्वभावथी थाय छे.
आत्माने मुनिदशा प्रगट थतां वस्त्रनो संयोग तेना कारणे स्वयं उतरी जाय छे, त्यां आत्माना
शुभविकल्पने निमित्त कहेवाय, पण खरेखर तो वस्त्रना पुद्गलोमां वर्तमान पर्यायनुं तेवुं ज परिणमन थवानी
लायकात हती. आत्मा तेनो कर्ता नथी. अने जे पंचमहाव्रतनो शुभविकल्प उठयो तेने चारित्रदशानुं निमित्त
कहेवाय पण खरेखर तो ते राग छे, ते वीतरागीचारित्रनुं कारण नथी. अने आत्मा ते विकल्पनो कर्ता परमार्थे
नथी. आत्माना अंतरस्वभावमां ठरतां विकल्प छूटी जाय छे. भगवाने वस्त्र छोडया एम कथन आवे, पण
खरेखर तो स्वरूपमां ठरतां राग छूटी गयो ने राग छूटी जतां तेना निमित्तरूप वस्त्रो स्वयमेव छूटी गया छे.
स्वयं दीक्षा अंगीकार करीने प्रभुश्री आत्मध्यानमां मग्न थया, अने तरत ज तेमने सातमुं अप्रमत्तगुण
स्थान तथा मनःपर्ययज्ञान प्रगट थयुं. त्रणेकाळना अनंत संतोनो एक ज प्रकार छे के आत्माना भानपूर्वक
पहेलांं तो मुनि थईने विकल्प ऊठे पण तेनो आश्रय माने नहि अने बाह्यमां परिग्रहनो संग होय नहि, पछी
अंदर चैतन्य गोळामां लीन थतां मुनिओने प्रथम सातमी भूमिका प्रगटे छे. जेने मुक्ति थाय तेने आ दशा
आव्या वगर कदी मुक्ति थाय नहि. गृहस्थपणामां सम्यग्दर्शन अने एकावतारीपणुं थाय पण आ दशा वगर
कोई सम्यग्द्रष्टिने पण गृहस्थपणामां मुक्ति थई जाय नहीं.
(प) मुनिदशा केवी होय?
कोई जीव द्रव्यलिंगी मुनि थईने एम माने के वस्त्र छोडवानी क्रिया हुं करुं छुं तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे.
साधुपदमां स्वरूपना भानसहित राग तूटतां शरीरनी निर्ग्रंथता तेना कारणे थई जाय छे, ते काळे पुद्गल
परावर्तननो काळ ज तेवो होय छे; आत्मानो