Atmadharma magazine - Ank 075
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ५० : आत्मधर्म: ७५
शरीरना रजकणो काम करे छे तेनुं स्वामित्व अंतरमांथी ऊडी गयुं छे, एवा संतने शरीरनु रक्षण करवानी के
तेने ढांकवानी वृत्ति ऊठवानो पण अवकाश रह्यो नथी. अहो, आत्माने ए दशा प्रगटे ते धन्य पळ छे! धन्य
काळ छे! धन्य भाव छे! ए धन्य अवसरनी भावना करतां श्रीमद् राचचंद्रजी कहे छे के––
नग्नभाव भुंडभाव सह अस्नानता,
अदतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो;
केश, रोम, नख के अंगे श्रृंगार नहीं,
द्रव्य–भाव संयममय निर्ग्रंथ सिद्ध जो;
–अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
–आवी दशा वगर त्रणकाळ त्रणलोकमां पूर्णदशानी प्राप्ति थती नथी. शरीर–मन–वाणीनी कोई क्रिया
उपर आत्मानो अधिकार नथी एवा अंतरभान पूर्वक शरीरशणगारनी वृत्ति टळी गई छे, अंतरमां चैतन्यना
ध्यान माटे बाह्यमां सहजपणे मुख्यपणे मौनदशा वर्ते छे. मुनिवरोने स्वभावनी लीनतामां आवी उत्कृष्ट
वैराग्यदशा होय छे.
(७) वरग्य
परमागम श्री समयसार भगवान वैराग्यनो अर्थ एम कहे छे के पुण्य–पापथी रुचि खसेडीने
आत्मस्वभावनी रुचि करवी ते ज वैराग्य छे. चैतन्यमूर्ति आत्मा तरफ वळतां पुण्य पाप प्रत्ये विरकत थई
गयो छे, स्वभावनी रुचि थई ते अस्ति अने स्वभावनी रुचि थतां ज पुण्य पाप बंनेनी रुचि टळी गई ते
नास्ति अखंडानंद स्वभावनी रुचि थतां ‘पुण्य सारुं अने पाप खराब’ एवी ऊंधी मान्यता टळी गई अने
पुण्य–पापमां मध्यस्थता थई गई ते वैराग्य छे; तेने पापनो तिरस्कार नथी ने पुण्यनो आदर नथी; पण पुण्य
अने पाप बंनेथी ते विरक्त छे.
जीव रक्त बांधे कर्मने वैराग्य प्राप्त मुकाय छे,
ए जिनतणो उपदेश तेथी न राच तुं कर्मो विषे. १प०.
शुभकर्मथी आत्माने लाभ थाय एवी जेनी बुद्धि छे ते जीव कर्ममां ज रक्त छे, तेने साचो वैराग्य होतो
ज नथी, ने ते कर्मने बांधे छे. धर्मी जीव शुभ–अशुभ बंने कर्मोथी भिन्न आत्मस्वभावने जाणीने ते शुभ–
अशुभकर्म प्रत्ये विरक्त छे, तेथी ते मुक्ति पामे छे. पुण्य अने पाप बंने मारुं स्वरूप नथी एवा भानथी ते बंने
प्रत्ये मध्यस्थ थईने पोताना स्वभावना आश्रये थता निर्मळ पर्यायने भगवान वैराग्य कहे छे.
(८) दीक्षा बाद, अंतरनी शातिना शेरडाना अनुभवमां भगवाने थयेला एक वर्षना उपवास
चारित्रदशा धारण कर्या पहेलांं पण भगवान ऋषभेदवने आत्मामां नक्की हतुं के आ भवमां ज हुं
केवळज्ञान अने मुक्ति पामवानो छुं. परंतु साथे साथे एम पण नक्की हतुं के पुरुषार्थ वगर केवळज्ञान थतुं
नथी. ज्यारे हुं पुरुषार्थ वडे मुनिदशा प्रगट करीने आत्मध्यानमां ठरीश त्यारे ज केवळज्ञान थशे. भगवाने
ज्यारे दीक्षा लीधी त्यारे तेमनी साथे देखादेखीथी बीजा चार हजार मोटा राजाओ पण पोतानी मेळे दीक्षित थई
गया हता. पण ते तो मात्र बाह्य नकल हती; अंदरमां अककल वगरनी नकल हती. ऋषभदेव भगवान तो
आत्माना आनंदना अनुभवनी लीनतामां रहेतां तेमने छ महिना सुधी आहारनी वृत्ति न थई; पण तेमनी
साथे दीक्षित थयेला राजाओ क्षुधी वगेरे सहन करी शक्या नहि, तेथी ते बधा भ्रष्ट थई गया. तेथी कहेवाय छे
के ‘भूखे मरतां भागी गया.’ अंतरनी शांतिना शेरडा वगर समता क्यांथी रहे? ‘में आटला दिवस आहार न
कर्यो’ एम ज्यां आहार न करवाना दिवसो गणाता होय तेने आत्मानी साची समता क्यांथी रहे? तेनुं लक्ष
तो आहार उपर पड्युं छे. आहार अने शरीरादि बाह्य पदार्थोनुं लक्ष छोडीने अंतरमां परम आनंदना
अनुभवमां एकाग्र थतां साची समता रहे छे. श्रीऋषभदेव भगवान आत्मामां स्थिर थतां आहारनो विकल्प
तूटी गयो अने छ महिना पछी आहारनी वृत्ति ऊठी पण छ महिना सुधी आहारनो योग न बन्यो. त्यां
भगवान तो आत्माना आनंदमां मस्त छे, बहारमां आहारनो संयोग तो तेटलो काळ थवानो ज न हतो, तेथी
न थयो. बाह्यद्रष्टिथी जोनारा अज्ञानी लोको बार महिना सुधी आहार न थयो तेने भगवाननो तप गणे छे
अने एनी नकलमां वर्षीतप करे छे. पण आहार न आव्यो ते तो जडनी क्रिया छे, तेमां