तेने ढांकवानी वृत्ति ऊठवानो पण अवकाश रह्यो नथी. अहो, आत्माने ए दशा प्रगटे ते धन्य पळ छे! धन्य
काळ छे! धन्य भाव छे! ए धन्य अवसरनी भावना करतां श्रीमद् राचचंद्रजी कहे छे के––
अदतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो;
केश, रोम, नख के अंगे श्रृंगार नहीं,
द्रव्य–भाव संयममय निर्ग्रंथ सिद्ध जो;
ध्यान माटे बाह्यमां सहजपणे मुख्यपणे मौनदशा वर्ते छे. मुनिवरोने स्वभावनी लीनतामां आवी उत्कृष्ट
वैराग्यदशा होय छे.
गयो छे, स्वभावनी रुचि थई ते अस्ति अने स्वभावनी रुचि थतां ज पुण्य पाप बंनेनी रुचि टळी गई ते
पुण्य–पापमां मध्यस्थता थई गई ते वैराग्य छे; तेने पापनो तिरस्कार नथी ने पुण्यनो आदर नथी; पण पुण्य
अने पाप बंनेथी ते विरक्त छे.
ए जिनतणो उपदेश तेथी न राच तुं कर्मो विषे. १प०.
अशुभकर्म प्रत्ये विरक्त छे, तेथी ते मुक्ति पामे छे. पुण्य अने पाप बंने मारुं स्वरूप नथी एवा भानथी ते बंने
प्रत्ये मध्यस्थ थईने पोताना स्वभावना आश्रये थता निर्मळ पर्यायने भगवान वैराग्य कहे छे.
नथी. ज्यारे हुं पुरुषार्थ वडे मुनिदशा प्रगट करीने आत्मध्यानमां ठरीश त्यारे ज केवळज्ञान थशे. भगवाने
ज्यारे दीक्षा लीधी त्यारे तेमनी साथे देखादेखीथी बीजा चार हजार मोटा राजाओ पण पोतानी मेळे दीक्षित थई
गया हता. पण ते तो मात्र बाह्य नकल हती; अंदरमां अककल वगरनी नकल हती. ऋषभदेव भगवान तो
आत्माना आनंदना अनुभवनी लीनतामां रहेतां तेमने छ महिना सुधी आहारनी वृत्ति न थई; पण तेमनी
के ‘भूखे मरतां भागी गया.’ अंतरनी शांतिना शेरडा वगर समता क्यांथी रहे? ‘में आटला दिवस आहार न
कर्यो’ एम ज्यां आहार न करवाना दिवसो गणाता होय तेने आत्मानी साची समता क्यांथी रहे? तेनुं लक्ष
तो आहार उपर पड्युं छे. आहार अने शरीरादि बाह्य पदार्थोनुं लक्ष छोडीने अंतरमां परम आनंदना
अनुभवमां एकाग्र थतां साची समता रहे छे. श्रीऋषभदेव भगवान आत्मामां स्थिर थतां आहारनो विकल्प
तूटी गयो अने छ महिना पछी आहारनी वृत्ति ऊठी पण छ महिना सुधी आहारनो योग न बन्यो. त्यां
भगवान तो आत्माना आनंदमां मस्त छे, बहारमां आहारनो संयोग तो तेटलो काळ थवानो ज न हतो, तेथी
न थयो. बाह्यद्रष्टिथी जोनारा अज्ञानी लोको बार महिना सुधी आहार न थयो तेने भगवाननो तप गणे छे
अने एनी नकलमां वर्षीतप करे छे. पण आहार न आव्यो ते तो जडनी क्रिया छे, तेमां