दर्शन–ज्ञान–चारित्र ने तप कहे छे.
थतां ज रागनी मीठास तो ऊडी जाय छे एटले विषयोमां सुखबुद्धि रहेती नथी. अविरति सम्यग्द्रष्टिने राग
आसकितनो राग होय छे. पछी आत्मामां विशेषपणे ठरतां आसकितनो राग पण रहेतो नथी, ने बाह्यमां पण
स्त्री आदि कांई परिग्रह होतो नथी. आवी दशाने चारित्र कहेवाय छे. जे जीव विषयोमां सुख मानतो होय, तथा
पुण्यमां अने तेना फळमां जेने मीठास होय ते तो मिथ्याद्रष्टि छे. आत्मामां आनंद नथी एम जे मानतो होय ते
ज विषयोमां ने विकारमां सुख माने छे. धर्मी जीवने तो सुखस्वरूपी आत्मानुं भान छे, पछी तेमां ठरतां राग
छूटी जतां ‘बाह्य स्त्री आदिने छोडी’ एम कहेवामां आवे छे. खरेखर ‘हुं राणीओने छोडुं’ एम ज्ञानीनो
अभिप्राय होतो नथी. राग हतो त्यारे राणीनुं निमित्तपणुं हतुं, पण स्वरूपनी चारित्रदशा वडे पोताना
उपादानमांथी राग टळी गयो एटले राणीनुं निमित्तपणुं पण छूटी गयुं, तेथी ‘राणीओने छोडी’ एम कहेवाय
छे. आ समज्या वगर अने आवी दशा प्रगट कर्या वगर कोई जीव परमात्मा थई शके नहीं.
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो,
प्रभु आज्ञाए थाशुं तेज स्वरूप जो...
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो;
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्षण छेदीने,
मोक्ष थई जतो नथी. २८ मूळगुण ते संतोनो सनातन मार्ग छे. आमां ए धन्य अवसर एटले आत्मानी
वीतरागी दशानो स्वकाळ क्यारे आवशे! तेनी ऊग्र भावना करी छे, दरेक जीवोए आत्मानुं भान करीने ए
भावना करवा जेवी छे. एवी भावनाथी आत्मानी रागरहित दशा थईने केवळज्ञान थाय, ते ज कल्याण छे.
(१) भेदविज्ञानसार–रूबरू लई जवा गोठवण करे तेने आपीए छीए.
(३) सम्यग्दर्शन– बधा ग्राहकोने जान्युआरीनी १ली तारीखथी टपालथी आंकडियाथी मोकलाशे.
आत्मधर्म–सोनगढ